श्रीराधादामोदर मन्दिर वृन्दावन
श्रीराधादामोदर मन्दिर की स्थापना रूप गोस्वामी के शिष्य जीव गोस्वामी ने संवत 1599 माघ शुक्ला दशमी तिथि को की थी। मंदिर में छह गोस्वामियों, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, भक्त रघुनाथ, जीव गोस्वामी, गोपाल भट्ट और रघुनाथ दास ने अपनी साधना स्थली बनाई। श्री रूप गोस्वामी जी ने सेवाकुंज के अन्तर्गत यहीं भजन कुटी में वास करते थे।
आज मूल श्री राधादामोदर विग्रह जयपुर में विराजमान हैं। उनकी प्रतिमा विग्रह स्वरूप वृन्दावन में विराजमान है। इनके साथ सिंहासन पर श्री वृन्दावनचन्द्र, श्री छैलचिकनिया, श्री राधाविनोद और श्री राधामाधव आदि विग्रह विराजमान हैं। मन्दिर के पीछे श्री जीव गोस्वामी जी तथा श्री कृष्णदास गोस्वामी जी की समाधियाँ स्थित हैं। मन्दिर के उत्तर भाग में श्रीपाद रूपगोस्वामी जी की भजन-कुटी और समाधि स्थल स्थित हैं। पास ही श्रीभूगर्भ गोस्वामी जी की समाधि है।

कहते है की इसकी चार परिक्रमाएँ करने से श्री गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा का फल मिलता है। साढ़े चार सौ वर्ष पुराने इस मंदिर की परिक्रमा करने से उसमें विराजमान गिरिराज शिला की स्वतः परिक्रमा हो जाती है। इसकी एक किलोमीटर से भी कम की चार परिक्रमाएँ करने से श्रृद्धालु गिरिराज गोवर्धन की सात कोस (25 किलोमीटर) लम्बी परिक्रमा का पुण्य अर्जित कर लेता है।
श्रीराधादामोदर के मन्दिर में विद्यमान हैं
श्री गोवर्धन में मानसी गंगा के उत्तरी तट पर श्री चक्रेश्वर महादेव जी का मंदिर हैं। श्रीमहादेव जी के मन्दिर के सामने एक प्राचीन नीम का पेड़ है। जिसके नीचे श्रील सनातन गोस्वामी जी की भजन कुटीर है। चक्रतीर्थ में चाकलेश्वर महादेवजी की इच्छा से श्रील सनातन गोस्वामी जी रहते थे व भजन करते थे। श्री सनातन गोस्वामी जी का नियम था। गिरि गोवेर्धन महाराज की नित्य परिक्रमा करना, अब उनकी अवस्था 90 वर्ष की हो गयी थी। नियम का पालन करना मुश्किल हो गया था फिर भी वह किसी न किसी प्रकार निबाहे जा रहे थे। एक बार वे परिक्रमा करते हुए लड़खड़ा कर गिर पड़े, एक गोप-बालक ने उन्हें पकड़ कर उठाया और कहा।
“बाबा, तो पै सात कोस की गोवर्द्धन परिक्रमा अब नाँय हय सके। परिक्रमा को नियम छोड़ दे”

बालक के स्पर्श से उन्हें कम्प हो आया. उसका मधुर कण्ठस्वर बहुत देर तक उनके कान मे गूंजता रहा। पर उन्होंने उसकी बात पर ध्यान न दियां परिक्रमा जारी रखी, एकबार फिर वे परिक्रमा मार्ग पर गिर पड़े। दैवयोग से वही बालक फिर सामने आया। उन्हें उठाते हुए बोला।
“बाबा, तू बूढ़ो हय गयौ है। तऊ माने नाँय परिक्रमा किये बिना। ठाकुर प्रेम ते रीझें, परिश्रम ते नाँय।”
फिर भी बाबा परिक्रमा करते रहे। पर वे एक संकट में पड़ गये। बालक की मधुर मूर्ति उनके हृदय में गड़ कर रह गयी थी। उसकी स्नेहमयी चितवन उनसे भुलायी नहीं जा रही थी। वे ध्यान में बैठते तो भी उसी की छबि उनकी आँखों के सामने नाचने लगती थी। खाते-पीते, सोंते-जागते हर समय उसी की याद आती रहती थी। एक दिन जब वे उसकी याद में खोये हुए थे, उनके मन में सहसा एक स्पंदन हुआ, एक नयी स्फूर्ति हुई। वे सोचने लगे-एक साधारण व्रजवासी बालक से मेरा इतना लगाव! उसमें इतनी शक्ति कि मुझ वयोवृद्ध वैरागी के मन को भी इतना वश में कर ले कि मैं अपने इष्ट तक का ध्यान न कर सकूँ। नहीं, वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता, जिसका इतना आकर्षण है। तो क्या वे मेरे प्रभु मदनगोपाल ही हैं। जो यह लीला कर रहे हैं?

एक बार फिर यदि वह बालक मिल जाय तो मैं सारा रहस्य जाने वगैर न छोड़ूँ। संयोगवश एक दिन परिक्रमा करते समय वह मिल गया। फिर परिक्रमा का नियम छोड़ देने का वही आग्रह करना शुरू किया। सनातन गोस्वामी ने उसके चरण पकड़कर अपना सिर उन पर रख दिया और लगे आर्त भरे स्वर में कहने लगे-
“प्रभु, अब छल न करो। स्वरूप में प्रकट होकर बताओ मैं क्या करूँ, गिरिराज मेरे प्राण हैं। गिरिराज परिक्रमा मेरे प्राणों की संजीवनी है। प्राण रहते इसे कैसे छोड़ दूं?”
भक्त-वत्सल भगवन, श्री सनातन गोस्वामी की निष्ठा देखकर प्रसन्न हुए। पर परिक्रमा में उनका कष्ट देखकर वे दु:खी हुए बिना भी नहीं रह सकते थे। उन्हें अपने भक्त का कष्ट दूर करना था और उसके नियम की रक्षा भी करनी थी इसका उपाय करने में देर भी नहीं करनी थी? सनातन गोस्वामी जी ने जैसे ही अपनी बात कह चरणों से सिर उठाकर उनकी ओर देखा उत्तर के लिए, उस बालक की जगह मदनगोपाल खड़े थे। वे अपना दाहिना चरण एक गिरिराज शिला पर रखे थे। उनके मुखारविन्द पर मधुर स्मित थी, नेत्रों में करुणा झलक रही थीं वे कह रहे थे।

“सनातन, तुम्हारा कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। तुम गिरिराज परिक्रमा का अपना नियम नहीं छोड़ना चाहते तो इस गिरिराज शिला की परिक्रमा कर लिया करो। इस पर मेरा चरण-चिन्ह अंकित है। इसकी परिक्रमा करने से तुम्हारी गिरिराज परिक्रमा हो जाया करेगी।”
इतना कह भगवन मदनगोपाल अन्तर्धान हो गये। श्री सनातन गोस्वामी जी, भगवन मदनगोपाल-चरणान्कित उस शिला को भक्तिपूर्वक अपने सिर पर रखकर अपनी कुटिया में गये। उसका अभिषेक किया और नित्य उसकी परिक्रमा करने लगे। आज भी भगवान मदगोपाल जी के चरण चिन्ह युक्त वह शिला वृन्दावन के श्रीराधादामोदर जी के मन्दिर में विद्यमान हैं, ऐसी मान्यता है कि राधा दामोदर मंदिर की चार परिक्रमा लगाने पर गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा के बराबर का फल मिल जाता है। आज भी कार्तिक सेवा में श्रद्धालु बड़े भाव से मंदिर की परिक्रमा करते है।
जय श्रीगिरिराज गोवर्धन की जय
जीवन में परम सुख़ और कल्याण के लिये सदैव जपते रहिये
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे !
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे !!
Shri Radha Damodar Ji Temple Vrindavan Images








