
श्री गोवर्धन उत्पत्ति कथा
एक बार गोलोक धाम में श्री राधा कृष्ण ने अपनी प्रेममयी रासलीला की थी। रासलीला के अन्त में श्री कृष्ण श्री राधा जी के उपर बड़े प्रंसन्न हुए। श्री कृष्ण को प्रसन्नचित देखकर श्री राधा जी बोली कि – हे जगदीश्वर ! यदि रास में आप मेरे साथ प्रसन्न है तो मैं आपके सामने अपने मन की प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ। श्री भगवान बोले – हे प्रिय ! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, तुम मुझ से मांग लो। तुम्हारे प्रेम के कारण मैं तुम्हे आद्ये वस्तु भी दे दूंगा। तब श्री राधा ने कहा – वृंदावन में यमुना के तट पर दिव्य निकुंज के पार्श्वभाग में आप रासरस के योग्य कोई एकांत एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये। यही मेरा मनोरथ है।

तब भगवान के ह्रदय से गोवर्धन पर्वत की उत्पत्ति हुई। उस उत्तम पर्वत को देख श्री राधा बहुत प्रसन्न हुई। श्री राधा उनके एकांत स्थल में श्री हरि के साथ सुशोभित होने लगी। यह सर्वतीर्थमय है। लता कुंज से श्याम आभा धारण करने वाला यह श्रेष्ठ गिरी मेघ की भाति श्याम व देवताओं का प्रिय है। इस प्रकार यह गिरिराज साक्षात श्री कृष्ण के ह्रदय से उत्पन्न होकर श्री गोलोक धाम में विराजित है।
ब्रजधाम में श्री गोवर्धन पूजा प्रारम्भ

ब्रजधाम में श्री नन्द महाराज एवं ब्रजवासी गण जल प्राप्त हेतु ( हर साल भाद्र पद मास इन्द्र द्वादशी तिथि में ) स्वर्ग के राजा इन्द्र की पूजा करते थे। श्री गिरिराज महाराज की महिमा देवराज इन्द्र की महिमा से भी अधिक है। उन्हें ये ज्ञान न था।
एक दिन श्री कृष्ण में देखा की ब्रज के सब गोप, इन्द्र यज्ञ करने की तयारी कर रहे है। भगवान श्री कृष्ण अन्तर्यामी और सर्वज्ञ है। उनसे कोई बात छिपी नही थी। वे सब जानते थे। फिर भी विनयपूर्वक नंदबाबा और बड़े बूढ़े गोपो से पूछा पिताजी ! आप लोगो के सामने ये कौन सा उत्सव आ गया है। इसका फल क्या है। किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों से ये यज्ञ किया करते है? आप मुझे अवश्य बतलाये। नंदबाबा ने कहा बेटा ! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी है।
ये मेघ उन्हीं के अपने रूप है। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान देने वाला जल बरसे है। भगवान श्री कृष्ण ने नंदबाबा और दुसरे ब्रजवासीओं की बात सुनकर इन्द्र की पूजा बन्द और श्री गिरिराज की पूजा प्रारम्भ करने के लिए अपने पिता नंदबाबा से कहा। श्री कृष्ण ने कहा इस संसार की स्थिति, उत्पति और अन्त के कारण क्रमशः सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण है। उसी रजोगुण की प्रेरणा से मेघ गण जल बरसते है। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इससे भला इन्द्र का क्या लेना देना है?

हम तो सदा के वनवासी है। वन और पहाड़ ही हमारे घर है। इस लिये हम लोगो को गौओं, ब्राह्मणों और गिरिगोवर्धन की पूजा करनी चाहिये। नंदबाबा और गोपो ने श्री कृष्ण की योक्तिपूर्ण बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण के कथन अनुसार नंदबाबा और अदि गोपो ने श्री गिरिराज जी की पूजा की एवं बेलों से जुती गाडियों पर सवार होकर भगवान श्री कृष्ण की लीलाओ का गान करती हुई श्री गिरिराज की परिक्रमा करने लगी। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से नंदबाबा आदि बड़े – बूढ़े गोपो ने श्री गिरिराज जी का विधि पुर्वक पूजन किया तथा फिर श्री कृष्ण के साथ सब ब्रज में लोट आये।
श्री कृष्ण द्वारा श्री गोवर्धन पर्वत धारण

देवराज इन्द्र अपनी पूजा न होने पर अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने ब्रजमंडल को नष्ट करने के लिये अपने शक्तिशाली बड़े-बड़े मेघो को भेजा। मेघो ने यहाँ पर आकर प्रवाल वर्षा प्रारम्भ कर दी। वर्षा से सारा ब्रजमंडल जल से भरने लगा। इस दुरावस्था में सभी बृजवासी ने श्रीकृष्ण की शरण में जा कर अपनी रक्षा की प्रार्थना की। भगवान ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीड़ित होकर बेहोश हो रहे है।
वे समझ गये ये सारी करतूत इन्द्र की है। वे मन ही मन कहने लगे अच्छा में अपनी योगमाया से इसका भलीभांति जवाब दूंगा। ये मूर्खता वश अपने को अपने को लोकपाल मानते है। इनके ईश्वर और धन का घमंड तथा अज्ञान मैं चूर चूर कर दूंगा। यह सारा बृज मेरे आश्रित है। मेरे द्वारा स्वीकृत है। और एक मात्र मैं ही इसका रक्षा हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूंगा। शरणागत की रक्षा करना तो मेरा व्रत है।

इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने खेल – खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उठा लिया। इसके बाद भगवान ने गोपो से कहा माता जी पिता जी और ब्रजबासियो। तुम लोग अपनी गोओं और सब सामग्री के साथ इस पर्वत के गड़े में आके बैठ जाओ। इस आंधी – पानी के डर से तुम्हे बचने के लिए मैंने ये युक्ति रची है। तब सब ग्वाल अपने गोधन के साथ पर्वत के नीचे आकर आराम से बैठ गए।
भगवान श्री कृष्ण सब बृज वासियों के देखते – देखते भूख प्यास की पीढ़ा, आराम विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सातदिन तक लगातार उस पर्वत को उठाये रखा। श्री कृष्ण एक डग भी वहां से इधर उधर नही हुए। भगवान श्री कृष्ण ने वर्षाघरा को रोकने के लिए नारायणी शक्ति द्वारा सुदरसन चक्र को पर्वत के उपर एवं नीचे जल रोकने के लिए शेषनाग जी द्वारा जल में जैसे नाव रहती है। ठीक उसही प्रकार ब्रजबसियो की रक्षा की।

श्री कृष्ण की योगमाया का प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकडी बन्द हो गई। इसके बाद उन्होंने मेघो को वर्षा करने से रोक दिया। जब गोवर्धनधारी श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर अंधी और घनघोर वर्षा बन्द हो गई है। आकाश से बदल छठ गए और सूर्ये देखने लगे। तब उन्होंने गोपो से कहा मेरे प्यारे गोपो अब तुम अपनी स्त्रियो, गोधन तथा बचो के साथ बाहर निकल आओ।
देखो अब आंधी पानी बन्द हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया। भगवान की आज्ञा पाकर सभी बृजवासी बहार निकल आये। भगवान श्री कृष्ण ने देखते ही देखते श्री गिरिराज को पूर्वतः उनके स्थान पर रख दिया। शेषनाग जी अपने स्थान को चले गये और सुदर्शन चक्र श्री कृष्ण जी में समाहित हो गये। बृजबासियो का हृदय प्रेम से भर गया। श्री कृष्ण की स्तुति करते हुए उनपर फूलो की वर्षा करने लगे।
परम पूज्य श्री स्वरूप दास जी बाबा की कृपा से