बाँसुरी की व्यथा कथा
एक बार बांसुरी से गोपियों ने पूछा तुम कान्हा के इतनी निकट कैसे पहुँच गयी ?
“री बांसुरी, तू श्री कृष्ण के होठों से कैसे चिपक गयी, जब भी हम देखते हैं तो या तो वो तेरे को अपनी कमर में रखते हैं या फिर अपने सुन्दर अधरों में तुझे कभी खुद से अलग ही नहीं करते ?”
बांसुरी ने कहा “सुनों बहना, मैं तो बासों के झुण्ड में रहती थी। एक दिन मुझे उनके नाम का भान हो गया और मैंने चुपचाप ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटना शुरू कर दिया। एक दिन उनकी दृष्टी मुझ पर पड़ गयी बस फिर क्या था मैं खुश थी की मेरी भी किस्मत खुल गयी। मैंने उनसे कहा कि मैं तुम्हारी होना चाहती हूँ, उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी होना आसान नहीं है तुझे परीक्षा देनी होगी। अपना सब कुछ खोना होगा मैंने कहा कि आज तुम कुछ भी परीक्षा ले लो पर मुझे अपना लो मेरी विनती सुनकर वो मुस्कराए और उसके बाद पहले तो उस ‘छलिये’ ने मुझे मेरे कुटुंब से अलग कर दिया।
फिर…. मुझे कांटा… और छांटा , पीड़ा तो बहुत हो रही थी। परन्तु मैं ‘कृष्ण-कृष्ण’ करती रही फिर भी उनका मन न भरा तो…. मेरे अन्दर जो भी था वह सब निकाल बाहर फेंका और तब भी मैं प्रेम दीवानी ‘कृष्ण-कृष्ण’ करती रही। तब उस ‘चितचोर’ ने मेरे अंग में छह छेद (सुराख़ ) कर दिए और मैं पागल तब भी ‘कृष्ण-कृष्ण’ करती रही।
और अंत में…. कृष्ण ने कहा “तू जीती मैं हारा, अब तू सदा मेरे होठों पर विराजमान रहेगी।
अगर प्रभु का होना है तो पहले हमें भी बांसुरी की तरह समर्पण करना होगा अपने झुण्ड से अलग हो न पड़ेगा। बांसुरी की तरह कटना छटना पड़ेगा, अपने भीतर का सब कुछ जो इस संसार से भरा पड़ा है। वो बहार निकालना पड़ेगा तब कहीं जाकर हम उसके नजदीक जा सकेंगे।
जय श्री राधेकृष्ण