निंबार्काचार्य नीमगांव मन्दिर
श्रीकृष्ण को उपास्य के रूप में स्थापित करने वाले श्रीनिम्बार्काचार्य जी भारत देश के प्रसिद्ध दार्शनिक थे जिन्होंने विशेष रूप से द्वैताद्वैत का दर्शन भी प्रतिपादित किया। निंबार्क सम्प्रदाय के अनुयायियों का मानना है कि श्री निम्बार्काचार्य जी का प्रादुर्भाव ३०९६ ईसापूर्व (आज से करीब पाँच हजार वर्ष पहले) कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। हालांकि आधुनिक शोधकर्ता निंबार्क भगवान् के काल को विक्रम की ५वीं सदी से १२वीं सदी के बीच सिद्ध करते हैं।
श्री निंबार्काचार्य जी का जन्मस्थान वर्तमान महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट वैदूर्यपत्तन (मूंगीपैठन – दक्षिण काशी) अरुणाश्रम में हुआ।

भक्तों की मान्यतानुसार आचार्य निम्बार्क का आविर्भाव-काल द्वापरयुग के अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ और परीक्षित पुत्र जनमेजय के समकालीन बताया जाता है। इनके पिता अरुण ऋषि, शुकदेव जी द्वारा गाई गई श्रीमद् भागवत कथा में जो राजा परीक्षित के कल्याण के लिए संपन्न हुई थी, में भी उपस्थित थे एवं उसी दौरान अनेक स्थानों पर उनकी उपस्थिति का प्रमाण बतलाया जाता है।
इसलिए वैष्णव चतु:सम्प्रदाय में ‘श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय’ अत्यन्त प्राचीन अनादि वैदिक सत्सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीसुदर्शनचक्रावतार जगद्गुरु श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य है। जिन्होंने भगवान श्रीराधा-कृष्ण की युगलोपासना को जीवंत प्रतिष्ठापित किया।
निखिलभुवनमोहन सर्वनियन्ता श्रीसर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की मंगलमयी पावन आज्ञा शिरोधार्य कर चक्रराज श्रीसुदर्शन ने ही इस धराधाम पर भारतवर्ष के दक्षिण में महर्षिवर्य पिता श्रीअरूण के पवित्र आश्रम में माता जयन्तीदेवी के उदर से श्रीनियमानन्द के रूप में अवतार धारण किया।

अल्पआयु में ही माता जयन्ती, पिता महर्षि अरूण के साथ उत्तर भारत में ब्रजमण्डल स्थित श्रीगिरिराज गोवर्धन की सुरम्य उपत्यका तलहटी में आपने निवास किया, जहाँ पर आपको देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी से वैष्णवी दीक्षा में वही पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपालमन्त्रराज का पावन उपदेश तथा श्रीसनकादि संसेवित श्रीसर्वेश्वर प्रभु, जो सूक्ष्म शालग्राम स्वरूप दक्षिणावर्ती चक्रांकित है, उनकी अनुपम सेवा प्राप्त हुई यह सेवा श्रीहंस भगवान् से श्रीसनकादिकों को और इनसे श्रीनारदजी को मिली, जो आगे चलकर द्वापरान्त में श्रीनिम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुई। वही सेवा अद्यावधि अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में आचार्य परम्परा से चली आ रही है।
सूर्यास्त के समय जगतसृष्टा श्रीब्रह्माजी ने छद्म रूप से एक दिवाभोजी दण्डी यति (केवल दिन में भोजन करने वाला सन्यासी) के रूप में व्रज में गोवर्धन गिरिराज के निकटवर्ती आश्रम में सूर्यास्त होने पर भी नियमानन्द से निम्बवृक्ष पर सूर्य दर्शन कराके उनका भोजनादि से आतिथ्य ग्रहण किया। जिससे श्रीब्रह्माजी ने उन्हें श्रीनिम्बार्क नाम से सम्बोधित किया। इसी से आप श्रीनिम्बार्क नाम से विश्व विख्यात हुए।
सद्गुरुदेव भगवन श्रीनारद जी की आज्ञा अनुसार नियमानंद जी (निंबार्काचार्य जी) ने गोवर्धन गिरिराज जीकी तलहटी को ही अपनी साधना-स्थली बनाया। इसलिए आपका प्रमुख केन्द्र ब्रजमंडल स्थित श्रीगोवर्धन गिरिराज जीके समीप निम्बग्राम (नीमगांव) ही रहा है। जिसका संरक्षण परम्परा से अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ, श्रीराधामाधव मंदिर, निम्बार्कतीर्थ (सलेमाबाद), किशनगढ़, जिला अजमेर (राजस्थान) के अधीनस्थ है।

स्वपुत्र श्रीनिम्बार्काचार्य के मुख से आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त करके अरुण ऋषि सन्यास लेकर तीर्थाटन करने चले गए। श्रीनिम्बार्काचार्य ने माता को भी इसी प्रकार धर्मोपदेश किया और स्वयं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर भारत-भ्रमण को निकले। निम्बार्काचार्य ने ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता पर अपनी टीका लिखकर अपना समग्र दर्शन प्रस्तुत किया। इनकी यह टीका ‘वेदान्त-पारिजात-सौरभ’ के नाम से प्रसिद्ध है। इनका मत ‘स्वाभाविक द्वैताद्वैत’ या ‘स्वाभाविक भेदाभेद’ के नाम से जाना जाता है। आचार्य निंबार्क के अनुसार जीव, जगत और ब्रह्म में वास्तविक रूप से भेदाभेद सम्बन्ध है। निंबार्क इन तीनों के अस्तित्व को उनके स्वभाव, गुण और अभिव्यक्ति के कारण भिन्न (प्रथक) मानते हैं तो तात्विक रूप से एक होने के कारण तीनों को अभिन्न मानते हैं। निम्बार्क के अनुसार उपास्य राधाकृष्ण ही पूर्ण ब्रह् म हैं।
जन्म कथा
एक समय बहुत से ऋषि-मुनि मिलकर ब्रह्माजी के पास गये और उनसे प्रार्थना करने लगे। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों प्रकार के वैदिक मार्ग हैं। उनमें प्रथम प्रवृत्त होकर साधक किस प्रकार निवृत्ति पथ का अनुसरण करे? ऋषियों के इस प्रश्न के समाधानार्थ उन्हें साथ लेकर ब्रह्माजी क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ विष्णु भगवान् की प्रार्थना की। तब आकाशवाणी हुई कि निवृत्तिमार्ग के उपदेशक सनकादिक एवं नारद आदि हैं, अब एक और भी आचार्य प्रकट होंगे।
आकाशवाणी सुनकर ऋषि-मुनि सब अपने आश्रमों को लौट आये। भगवान् ने श्रीसुदर्शन को आज्ञा प्रदान की- हे सुदर्शन ! भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार में कुछ काल से शिथिलता आरही है, अतः सुमेरु पर्वत के दक्षिण में तैलंग देश में अवतीर्ण होकर आप निवृत्ति-लक्षण भागवत धर्म का प्रचार-प्रसार कीजिये। मथुरा मण्डल, नैमिषारण्य, द्वारका आदि मेरे प्रिय धामों में निवास कीजिये। भगवान् के आदेश को शिरोधार्य करके तैलंगदेशीय सुदर्शनाश्रम में भृगुवंशीय अरुण ऋषि की धर्मपत्नी श्रीजयन्तीदेवी जी के उदर से कार्तिक शुक्ल १५ को सायंकाल श्रीनिम्बार्काचार्य का अवतार हुआ।
ग्रन्थ सम्पदा: आचार्य निम्बार्क की ग्रन्थ सम्पदा इस प्रकार है
वेदान्तपारिजातसौरभ
वेदान्तकामधेनु दशश्लोकी
प्रपन्नकल्पवल्ली
मन्त्ररहस्य षोडषी
प्रपत्तिचिन्तामणि
गीतावाक्यार्थ
सदाचार प्रकाश
राधाष्टकम्
कृष्णाष्टकम्
प्रातःस्मरणस्तोत्रम्
निम्बार्क के इन्ही ग्रन्थों पर द्वैताद्वैत सम्प्रदाय की नींव स्थिर है। इन ग्रन्थों में से प्रतिपत्तिचिन्तामणि, गीतावाक्यार्थ, और सदाचारप्रकाश, प्रायः अनुपलब्ध हैं। ‘प्रपत्तिचिन्तामणि’ तथा ‘सदाचार प्रकाश’ – इन दो ग्रन्थों का उल्लेख ‘वेदान्त-रत्न-मञ्जूषा’ में श्री पुरूषोत्तम आचार्य ने किया है।
डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी सुविख्यात पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ में निंबार्क और उनके वेदांत दर्शन की चर्चा करते हुए लिखा है कि निंबार्क की दृष्टि में भक्ति का तात्पर्य उपासना न होकर प्रेम अनुराग है। प्रभु सदा अपने अनुरक्त भक्त के हित साधन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। भक्तियुक्त कर्म ही ब्रह् मज्ञान प्राप्ति का साधन है।
इस निंबार्क आचार्य पीठ परम्परा में अब तक 48 आचार्य हुये हैं
1 श्रीहंसभगवान् – 2 श्रीसनकादिकभगवान् – 3 श्रीनारदभगवान् – 4 श्रीनिम्बार्काचार्य जी – 5 श्रीश्रीनिवासाचार्य जी – 6 श्रीविश्वाचार्य जी – 7 श्रीपुरुषोत्तमाचार्य जी – 8 श्रीविलासाचार्य जी – 9 श्रीस्वरूपाचार्य जी – 10 श्रीमाधवाचार्य जी – 11 श्रीबलभद्राचार्य जी – 12 श्रीपद्माचार्य जी – 13 श्रीश्यामाचार्य जी – 14 श्रीगोपालाचार्य जी – 15 श्रीकृपाचार्य जी – 16 श्रीदेवाचार्य जी – 17 श्री सुन्दरभट् टाचार्य जी – 18 श्रीपद्मनाभभट् टाचार्य जी – 19 श्रीउपेन्द्रभट् टाचार्य जी – 20 श्रीरामचन्द्रभट् टाचार्य जी – 21 श्रीवामनभट् टाचार्य जी – 22 श्रीकृष्णभट् टाचार्य जी – 23 श्रीपद्माकरभट् टाचार्य जी – 24 श्रीश्रवणभट् टाचार्य जी – 25 श्रीभूरिभट् टाचार्य जी – 26 श्रीमाधवभट् टाचार्य जी – 27 श्रीश्यामभट् टाचार्य जी – 28 श्रीगोपालभट् टाचार्य जी – 29 श्रीबलभद्रभट् टाचार्य जी – 30 श्रीगोपीनाथभट् टाचार्य जी – 31 श्रीकेशवभट् टाचार्य जी – 32 श्रीगांगलभट् टाचार्य जी – 33 श्रीकेशवकाशमीरीभट् टाचार्य जी – 34 श्रीश्रीभट् टदेवाचार्य जी – 35 श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी – 36 श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी – 37 श्रीहरिवंशदेवाचार्य जी – 38 श्रीनारायणदेवाचार्य जी – 39 श्रीवृन्दावनदेवाचार्य जी – 40 श्रीगोविन्ददेवाचार्य जी – 41 श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्य जी – 42 श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्य जी – 43 श्रीनिम्बार्कशरणदेवाचार्य जी – 44 श्रीब्रजराजशरणदेवाचार्य जी – 45 श्रीगोपीश्वरशरणदेवाचार्य जी – 46 श्रीघनश्यामशरणदेवाचार्य जी – 47 श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्य जी – 48 श्रीराधासर्वेश्वरशरणदेवाचार्य जी।