गोवर्धन परिक्रमा का महात्म्य
इस कलियुग में गोवर्धन गिरिराज जी महाराज की परिक्रमा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है। गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा श्रद्धालुओं के सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है। गोवर्धन पर्वत को योगेश्वर भगवान कृष्ण का साक्षात स्वरूप माना गया है।
श्रीमद् भागवत में स्वयं गोपियों ने भी कहा है :- हंतारमद्रिरबलाहरिदास वर्यो यानी श्री गोवर्धन गिरिराज जी के जैसा भक्त आज तक कोई नहीं हुआ यही सर्वश्रेष्ठ एकमात्र भक्त हैं।
तभी भगवान श्री कृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को प्रत्यक्ष देव की मान्यता प्रदान की। इन्हीं गोवर्धन पर्वत को द्वापर युग में भगवान कृष्ण द्वारा इन्द्र का मद चूर करने के लिए एवं ब्रजवासियों को इन्द्र के कोप से बचाने के लिए 7 दिन 7 रात तक अपने वाम हाथ की कनिष्ठा अंगुली के नख पर धारण किया था।
कलियुग में गिरिराज गोवर्धन को भगवान कृष्ण का ही साक्षात स्वरूप मानकर उनकी परिक्रमा की जाती है। गिरिराज गोवर्धन की यह परिक्रमा अनंत फलदायी व पुण्यप्रद होती है। गिरिराज गोवर्धन उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले से लगभग 21 किमी की दूरी पर स्थित है।
गिरिराज गोवर्धन पर्वत 21 किमी के परिक्षेत्र में फैला हुआ है। गिरिराज पर्वत की परिक्रमा 7 कोस, 14 मील अर्थात 21 किमी० की होती है।
गोवर्धन गिरिराज जी की परिक्रमा वैसे तो कहीं से भी प्रारंभ की जा सकती है किंतु कुछ लोगों की मान्यता अनुसार गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा प्रारंभ करने हेतु 2 मुखारविंद हैं। ये 2 मुखारविंद हैं-
1. मानसी गंगा मुखारविंद मंदिर 2. जतीपुरा मुखारविंद मंदिर
इन 2 मुखारविंदों में से किसी एक मुखारविंद से परिक्रमा प्रारंभ कर परिक्रमा पूर्ण करने पर वापस उसी मुखारविंद पर पहुंचना होता है।
किंतु सभी वैष्णव भक्तजन ‘मानसी गंगा मुखारविंद से ही अपनी परिक्रमा का प्रारंभ करते हैं, शेष सभी भक्त ‘जतीपुरा’ मुखारविंद से अपनी परिक्रमा प्रारंभ करते हैं। ‘जतीपुरा-मुखारविंद’ को श्रीनाथजी के विग्रह ( बल्लभ कुल संप्रदाय ) की मान्यता प्राप्त है।
वैसे परिक्रमा का सही मायने में नियम यह कहता है कि आप जिस स्थान से भी प्रारंभ करते हैं उसी स्थान तक आपको पूरा करना होता है चाहे वह स्थान कोई भी हो, चाहे वो राधा कुंड हो, चाहे वो मानसी गंगा मुखारविंद हो, चाहे वह दानघाटी मंदिर हो, चाहे वह आन्यौर गांव हो, चाहे वो जतीपुरा मुखारविंद हो, चाहे वह गोवर्धन गांव हो कोई भी स्थान हो।