इसी विद्रुभवन में भगवान श्री बलराम जी की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती जी का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इस मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश:
1. सिंहचौर,
2. जनानी ड्योढी,
3. गोशाला द्वार,
4. बड़वाले दरवाज़े के नाम से जाने जाते हैं।
मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है जो कि बलभद्र कुण्ड के नाम से पुराण में वर्णित है। आजकल इसे ‘क्षीरसागर’ के नाम से पुकारते हैं।
ऐतिहासिक तथ्य
मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थीं, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था। इसी निमित्त नन्द बाबा ने बलदेव जी की माता रोहिणी को बलदेव जी के प्रसव के निमित इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेव जी का जन्म हुआ जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा (रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंश तथा अबैरनी, बैर रहित क्षेत्र) दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।
मुग़लकाल में
धीरे-धीरे समय बीत गया बलदेव जी की ख्याति एवं वैभव निरन्तर बढ़ता गया और समय आ गया धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगज़ेब का। जिसका मात्र संकल्प समस्त हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्ति भंजन एवं देव स्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देव स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय। फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देव विग्रह है,
किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे उनके देश के आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब के अन्तर ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव और शाही फ़रमान ज़ारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कारखाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कारखाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कारखाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।
इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाह आलम ने सन् 1196 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ाकर यानी 7 गाँव कर दिया। जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फ खाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाह आलम ने एक पृथक से आदेश चैत सुदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ।
उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथास्थान रखा एवं पृथक से भोगराग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देवजी के पौत्र गोस्वामी हंसराजजी, जगन्नाथजी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊ जी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है। मुग़ल काल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुग़लकाल से आज तक शाही ग्रांट के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रतिवर्ष भेंट की जाती है।
Dau so data nahi jag mai kai ek deenan pe raksha karen taren vidhen anek….. ? Jay Dingauji maharaj Ji Ki Jay.?
Jain ho dauji maharaj ki
श्री दाउजी महाराज की जय !