मन का आंनद आंतरिक सौन्दर्य

एक बार इंद्र अपने दरबार में सभी देवताओं के साथ बैठे पृथ्वी की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे। पृथ्वी के जीवन, वहां की समस्यओं व मांगों के विषय में सभी अपने अपने विचार रख रहे थे। इंद्र का आग्रह था कि पृथ्वी के जीवन के विषय में उन्हें सही विषयवस्तु का ज्ञान हो जाए तो वे सुधार की दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाएं। देवताओं ने उन्हें काफी कुछ जानकारी दी। इनमें से एक अहम बात यह सामने आई कि पृथ्वीवासियों को कई वस्तुएं कुरूप लगती है जिनसे वे असहज हो जाते हैं। यह सुनकर इंद्र ने पृथ्वी पर घोषणा करवाई कि जिसे जो भी वस्तु कुरूप लगती है उसे वे यहां लाकर सुंदरता में बदलवा लें। इंद्र की यह घोषणा सुनकर पृथ्वीवासियों की खुशी का ठिकाना न रहा।

सभी ने इस सुअवसर का लाभ उठाना उचित समझा और अपनी वस्तुओं की सुंदर करवाने ले गए। इंद्र ने पुन: खोज करवाई कि कहीं कोई इस सुविधा से वंचित तो नहीं रह गया। पता लगा कि एक छोटी-सी कुटिया में रहने वाले साधु ने कुछ भी परिवर्तित नहीं करवाया है। कारण पूछने पर उसने कहा- मनुष्य जीवन से सुंदर अन्य कुछ है ही नहीं और अत्मसंतुष्टि से बढ़कर कोई आनंद नहीं है। मेरे पास ये दोनों ही वस्तुएं है। फिर मुझे इन्हें बदलवाने की भला क्या जरूरत है?

सार यह है कि सुंदरता के सही मायने आंतरिकता में ही बसते है। बाहरी सौन्दर्य नेत्रों को प्रीतिगत लगता है किंतु मन का आंनद तो आंतरिक सौन्दर्य में ही निहित होता है।

श्री द्वारिकेशो जयते।

बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः