देवासुर संग्राम
यह कहानी छान्दोग्य-उपनिषद् (प्रथम-प्रपाठक) की है । इसमें प्राण की महत्ता बताई गई है । इस कथा से आप परमात्मा के स्वरूप को जान सकते हैं ।
कहानी इस प्रकार है
देव और असुर दोनों प्रजापति की सन्तानें हैं । असुरों और देवताओं में एक बार झगडा हो गया और सच तो यह है कि यह देवासुर-संग्राम सदा जारी रहता है । देवताओं ने उद्गीथ (ओम्) को इसलिए ग्रहण कर लिया कि इससे असुरों को पराजित किया जा सकता है । उन्होंने पूरी शक्ति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया । इस आक्रमण से बचने के लिए कान के दुर्ग में भागे । उन्होंने समझा कि वे यहाँ सुरक्षित रहेंगे । परन्तु असुर वहाँ भी पहुँच गए । इसलिए कि कान अच्छी बात भी सुनता है और बुरी बात भी । जब कान-दुर्ग में रक्षा नहीं हुई तो वे देवता अपनी आँख के दुर्ग में घुस गए । असुरों ने वहाँ भी आक्रमण किया ।
इसलिए कि आँखें अच्छी बातें भी देखती हैं और बुरी बातें भी । इसके बाद देवता नाक के दुर्ग में घुस गए । असुरों ने वहाँ भी आक्रमण कर दिया । अब नाक सुगन्ध भी सुँघती है और दुर्गन्ध भी । तब वे जिह्वा के दुर्ग में चले गए । वहाँ भी असुरों ने आक्रमण किया । इसलिए जिह्वा अच्छी बात भी कहती और बुरी बात भी । एक-एक करके देवता शरीर के प्रत्येक दुर्ग में पहुँचे । प्रत्येक असुरों ने उन पर आक्रमण किया ।
तब देवों ने मुख में रहने वाले प्राण को शरीर में उद्गीथ (ओम्) का प्रतीक मानकर उसकी उपासना की और सोचा कि इससे हम असुरों को पराजित कर देंगे । अन्त में वे प्राण के दुर्ग में प्रविष्ट हुए । असुरों ने वहाँ भी आक्रमण किया । परन्तु इस दुर्ग के द्वार को वे पार नहीं कर सके । इसलिए कि प्राण में केवल उत्तम बातें ही होती हैं, बरी बात कोई भी नहीं होती । अन्य इन्द्रियों में स्वार्थ की भावना है, मुख में स्वार्थ की भावना नहीं है । मुख जो भी लेता है, अपने पास कुछ भी नहीं रखता । वह सबमें बाँट देता है । प्राण भी दिन रात चलता हुआ आँख, कान, नाक आदि सभी इन्द्रियों को सजीव बनाए हुए है । सब दुर्गों में कम्युनिस्टों की भाँति स्वार्थी लोग पहुँचे ।
प्राण के दुर्ग में वे नहीं पहुँच सके । यह वह दुर्ग है जिसका अपना कोई स्वार्थ नहीं, जो कभी दूषित नहीं होता । यह विद्यमान है तो केवल दूसरों के कल्याण के लिए । आप सोते हों, जागते हों, उठते-बैठते हों, चुप हों या बाते करते हों , यह प्राण हर समय अपना काम करता रहता है । अच्छा है कि यह प्राण किसी लेबर-यूनियन का सदस्य नहीं बना । इसने कभी यह नहींं कहा कि इसे चौबीस घण्टे में दो या तीन घण्टे की छुट्टी चाहिए । यदि ऐसा होता तो इन दो-तीन धण्टों के समाप्त होने से बहुत पहले ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती ।
असुरों ने देखा कि इस दुर्ग में वे किसी को रिश्वत नहीं दे सकते । किसी को विद्रोही नहीं बना सकते । जब असुर मुख में रहने वाले प्राण अथवा मुख्य-प्राण को पाप से बींधने के लिए उसके पास पहुँचे, तो वे ऐसे नष्ट हो गए, जैसे कठोर पत्थर से टकराकर मिट्टी का ढेला नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है । इसलिए यह दुर्ग आज भी पवित्र है, आज भी देवताओं के लिए सुरक्षित है । विशेषः–मुख में रहने वाले प्राण को उद्गीथ का प्रतीक मानकर उसकी उपासना का अभिप्राय मुख द्वारा उँची ध्वनि से ओंकार के नाद को गुँजाने से है इसी को उद्गीथ कहते हैं । उत् माने उच्च-स्वर से और गीथ माने गाना । इन्य इन्द्रियों से उद्गीथ-उपासना में शुभाशुभ वासना बनी रहती है, मुख में प्राण के योग के द्वारा उद्गीथ-उपासना करने से, उच्च घोष से ओंकार के नाद को गुँजाने से पाप का स्पर्श नहीं होता, क्योंकि मुख तथा प्राण दोनों में स्वार्थ का सम्पर्क नहीं है ।
यह उपनिषद् की कथा है। केवल समझाने के लिए कही गई है । इस कथा का सीधा सा अर्थ है कि प्राण वह वस्तु है, जिसके द्वारा देवता अर्थात् यह आत्मा अपने परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है । प्राण के द्वारा श्वास के साथ-साथ ओम् का जाप करने से मन एकाग्र होता है । ओम् परमात्मा का मुख्य नाम है । वेद से लेकर गीता तक इस ओम् की महिमा गाई गई है । ओंकार के जाप से मन को एकाग्रता और आत्मा को शान्ति मिलती है । जब प्राण अन्दर को जाये तो ओ कहो और जब बाहर आये तो म् कहो । इस प्रकार प्राण के द्वारा ओम् का जाप करने से मन की एकाग्रता प्राप्त होती है ।
जैसे कठोर पत्थर से टकराकर मिट्टी का ढेला चूर-चूर हो जाता है, उसी प्रकार ओंकार की उपासना करने वाले से जो पाप की कामना करता है, वह भी नष्ट हो जाता है । उपासक एक अडिग चट्टान है । मुख-स्थित प्राण को उद्गीथ का प्रतीक मानकर अंगिरस् ने ओंकार-उपासना की, इससे उसका कल्याण हो गया । इसलिए प्राण को आंगिरस माना जाता है, शरीर के अंगों का यह रस है । इसी प्रकार मुख-स्थित प्राण को उद्गीथ मानकर बृहस्पति ने ओंकार-उपासना की, इससे उसका भी कल्याण हो गया । इसलिए प्राण को बृहस्पति माना जाता है, वाणी बृहती है, महान् है और प्राण उसका पति है । इसी प्रकार अयास्य और दल्भ ने भी ओंकार की उपासना की , इनका भी कल्याण हो गया । आप भी ओंकार की उपासना करें, आपका भी कल्याण होगा ।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः