श्री कुशल बिहारी मंदिर, जयपुर मंदिर, बरसाना
प्रसिद्ध ठाकुर श्रीकुशल बिहारी मंदिर की स्थापना करीब 110 साल पहले हुई।
एक बार जयपुर नरेश माधोसिंह जी महारानी के साथ राधारानी के दर्शन करने बरसाना आए थे। दर्शन के बाद उनकेे मन में राधा किशोरी जी के लिए महल बनाने की इच्छा प्रकट हुई। क्योंकि उन्हें वह मंदिर छोटा लगा। इस पर राजा माधोसिंह जी ने वहां के सेवायतों से इस संदर्भ में बातचीत की। सेवायतों ने श्रीजी के लिए नया महल बनाने की स्वीकृति दे दी।
इस (कुशल बिहारी) जयपुरिया मन्दिर का निर्माण राधारानी के विग्रह को यहां विराजमान करने के लिए कराया गया था। मन्दिर निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद राजा माधोसिंह ने राधारानी मन्दिर के प्रमुख तीन थोक के सेवायत गोस्वामियों को इस विषय में बात करने के लिए जयपुर दरबार में सैनिक भेजकर बुलवाया। सैनिकों के साथ गोस्वामीजन जयपुर के लिए रवाना हुए। लेकिन, भरतपुर से आगे निकलते ही 12 में से 1 सेवायत की अचानक मृत्यु हो गई। इस पर सेवायत गोस्वामियों ने विचार किया कि राधारानी नए मन्दिर में जाने की इच्छुक नहीं हैं।
तब राजा माधोसिंह खुद बरसाना आए। उन्होंने सेवायत गोस्वामीजन से बैठक की। सेवायतों ने राजा माधोसिंह को बताया कि नए मंदिर में जाने की राधारानी जी की इच्छा नहीं है। काफी प्रयासों के बाद भी जब राधारानी नए मंदिर में नहीं गईं तो 8 साल बाद यानि 1918 में कुशल बिहारीजी (भगवान श्रीराधा-कृष्ण जी का दूसरा विग्रह), हंस गोपालजी, लड्डू गोपालजी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई। राजा साहब की धर्मपत्नी “कुशला बाई” के नाम पर मन्दिर का नामकरण “कुशल बिहारी मंदिर” किया गया।
कुशल बिहारी मंदिर के निर्माणकर्ता माधो सिंह द्वितीय जयपुर रियासत के नौवें महाराजा थे। इस मंदिर का निर्माण वर्तमान जयपुर रियासत के लोक निर्माण विभाग द्वारा कराया गया था। मन्दिर के निर्माण कार्य में बंसी पहाड़पुर के पत्थरों का प्रयोग किया गया। इसमें बेहतरीन नक्काशी और चित्रकारी है। दीवारों पर भगवान श्री राधा-कृष्ण की द्वापर युगीन लीलाओं का चित्रण है। उन ब्रज भूमि में की गईं लीलाओं का दर्शन कर भक्त आनंदित होते हैं। पहाड़ पर बना होने पर भी इसमें पार्किंग के लिए पर्याप्त स्थान है। इस मंदिर को बनाने में करीब 50 से 60 लाख रुपये का खर्च आया और चौदह साल में बनकर तैयार हुआ।
मन्दिर के मुख्य हॉल एवं गर्भगृह के अलावा इस मंदिर की दो मंजिलों पर करीब छह दर्जन कमरे हैं। ये कमरे इस तरह बनाये गए हैं कि हर कमरे से दूसरे कमरे में आवागमन हो सकता है। इसमें झरोखा और छतरी जैसे पारंपरिक राजस्थानी वास्तुकला के तत्व शामिल हैं। इसकी शानदार डिजाइन और वास्तुकला दो ऐसे कारक हैं जिनके कारण यह बरसाना में घूमने के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। कोष्ठकों, स्तंभों और दीवार पैनलों पर जटिल नक्काशी इसे एक सुंदर रूप प्रदान करती है। यह मंदिर किलेनुमा बनाया गया है जो ब्रह्मांचल पर्वत के दानगढ़ शिखर पर विद्यमान है।
मन्दिर का निर्माण 1911 में पूर्ण हो गया। परन्तु राधा रानी का श्रीविग्रह यहां विराजमान न हो पाने की वजह से यह कुछ वर्ष रिक्त रहा। वर्ष 1918 में इसमें ठाकुर श्री कुशल बिहारी की स्थापना की गई। मन्दिर की सेवा पूजा निम्बार्क परंपरा के अनुसार होती है। राजा साहब ने यहां सेवा पूजा के लिए राधेश्याम ब्रह्मचारी जी महाराज को नियुक्त किया था।
जयपुर का राज परिवार शुरू से हमारी राधारानी के भक्त रहे हैं। जयपुर राज्य के संस्थापक सवाई जयसिंह के पुत्र महाराजा माधो सिंह प्रथम भी राधारानी के परम भक्त थे। 19 नवम्बर 1753 को उन्होंने बरसाना धाम में राधारानी के दर्शन किये थे। उस समय भरतपुर के राजकुमार जवाहर सिंह तथा जयपुर राज्य में भरतपुर के राजदूत हेमराज कटारा उनके साथ ही थे। हेमराज कटारा को इस मौके पर माधोसिंह प्रथम ने एक हाथी भेंट किया था। इस घटना का वर्णन कटारा परिवार के तीर्थ पुरोहित की पोथी में दर्ज है।
जयपुर राजघराने के राजा माधो सिंह द्वितीय ने इसका निर्माण कराया।
जयपुर के महाराजा रामसिंह जी का अचानक स्वर्गवास हो गया। और तब भगवान राधाकृष्ण की कृपा से (वृंदावन वास का फल) कुंवर कायम सिंह जी को जयपुर रियासत का उत्तराधिकारी चयन कर 30 सितंबर 1880 ईस्वी को सवाई माधोसिंह द्वितीय के नाम से जयपुर का महाराजा बना दिया।
धार्मिक प्रवृत्ति और गुरु जी के आदेश पर आपने ब्रज में दो मंदिरों का निर्माण कराया। वृंदावन में राजा माधोसिंह के नाम पर “माधव विलास” और बरसाना में रानी कुशल कंवर के नाम पर “श्रीकुशल बिहारी मंदिर”। इन्होंने गंगोत्री धाम में भी एक मन्दिर। और जादौन रानी की याद में जयपुर नगर में एक छतरी भी बनवाई। तथा अन्य स्थानों पर भी अनेक मंदिरों के निर्माण कराए। परन्तु पांच रानियां होने पर भी संतान सुख नहीं मिला। और इनका स्वर्गवास सितंबर 1922 में हो गया।