नरहरि सुनार की करधनी
नरहरि सुनार पंढरपुर में रहते थे, लेकिन उनका हृदय हमेशा काशी के भोले बाबा के प्रति समर्पित था। वे इतने अधिक शिवभक्त थे कि पंढरपुर में रहते हुए भी वे विट्ठल भगवान से कभी नहीं मिले और न ही उनके दर्शन करने की कोई आकांक्षा थी। वे एक सुनार थे, और जब वे सोने के आभूषण बनाते, तो उनका मन लगातार “शिव शिव शिव” का जाप करता रहता। यही कारण था कि उनके बनाए आभूषणों में एक दिव्य सौंदर्य होता था।
पंढरपुर में एक साहूकार रहते थे जो विट्ठल भगवान के महान भक्त थे। उनका कोई संतान नहीं था, और उन्होंने विट्ठल भगवान से यह वचन लिया था कि यदि भगवान ने उन्हें पुत्र दिया, तो वे भगवान को सोने की करधनी अर्पित करेंगे। विट्ठल भगवान की कृपा से उनका पुत्र हुआ, और यह खुशी में साहूकार ने तुरंत नरहरि सुनार से संपर्क किया। साहूकार ने उनसे कहा, “नरहरि जी, अब मैं विट्ठल भगवान को सोने की रत्नजड़ित करधनी पहनाना चाहता हूं, कृपया इसे तैयार करें।”
नरहरि सुनार ने साहूकार से कहा, “मैं शिव के अलावा किसी अन्य देवता के मंदिर में प्रवेश नहीं करता। आप अन्य किसी सुनार से इसे बनवाएं।” लेकिन साहूकार ने उनसे आग्रह किया, “पंढरपुर में आपका जैसा कोई दूसरा सुनार नहीं है, कृपया आप ही इस करधनी को बनाइए।” अंत में नरहरि जी ने यह शर्त रखी कि वे विट्ठल भगवान के मंदिर में नहीं जाएंगे, लेकिन साहूकार स्वयं उनके लिए भगवान की कमर का नाप ले आए।
साहूकार ने वही किया, और नरहरि जी ने सोने की करधनी बना दी। जब साहूकार वह करधनी लेकर मंदिर पहुंचे, तो पुजारी ने देखा कि करधनी भगवान की कमर से चार अंगुल बड़ी हो गई थी। साहूकार उसे लेकर नरहरि जी के पास लौटे और करधनी को छोटा करवाया। लेकिन जब उन्होंने फिर से करधनी मंदिर में पहनाने के लिए दी, तो वह चार अंगुल छोटी हो गई। यह सिलसिला बार-बार हुआ, और पुजारियों ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि जी स्वयं मंदिर जाकर नाप लें।
बहुत अनुरोध करने पर नरहरि जी मंदिर गए, लेकिन उन्होंने अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली ताकि वे विट्ठल भगवान के दर्शन से बच सकें। जब उन्होंने हाथ से मूर्ति का नाप लिया, तो उन्हें महसूस हुआ कि वे शिव भगवान की मूर्ति को टटोल रहे हैं, जिनकी पाँच मुख और दस हाथ हैं। नरहरि जी ने सोचा कि शायद साहूकार ने उन्हें शिव मंदिर में लाकर विट्ठल भगवान की मूर्ति से ठिठोली की है, इसलिये उन्होंने अपनी आँखों से पट्टी खोल दी। लेकिन जब उन्होंने देखा तो पाया कि सामने विट्ठल भगवान की मुस्कराती हुई मूर्ति खड़ी थी। उन्होंने पुनः अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली और नाप लिया। फिर से उन्हें वही आभास हुआ कि वे शिव भगवान की मूर्ति को टटोल रहे हैं।
यह देखकर नरहरि जी ने महसूस किया कि शिव और विट्ठल भगवान एक ही हैं। उन्होंने अपनी आँखों की पट्टी हटा दी और भगवान विट्ठल के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने रोते हुए कहा, “हे भगवान, मैंने आपकी और शिवजी के बीच अंतर किया था, और इसीलिए मैं आपके दर्शन से वंचित रहा। आपने मेरे अज्ञान को दूर कर दिया, कृपया मुझे क्षमा करें।”
भगवान विट्ठल ने नरहरि जी की सरलता और विनम्रता को देखा और प्रसन्न होकर अपने सिर पर शिवलिंग धारण किया। यह देखकर नरहरि जी अत्यधिक रोमांचित हो गए और उन्होंने भगवान की स्तुति की। इस प्रकार, नरहरि सुनार को भगवान की शरण मिल गई, और उनका जीवन दिव्य आनंद से भर गया।
जय श्री राधे राधे जी