प्राचीन माता मनसा देवी मंदिर, गोवर्धन की पौराणिक कथा
जब भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन गिरिराज पर्वत को अपनी सबसे छोटी उंगली (कन्नी उंगली) पर उठा लिया। तो समस्त ब्रजवासी गोप – गोपियों में यह बहुत बड़ा चिंता का विषय बन गया। कि आखिर ये इतने बड़े गोवर्धन गिरिराज को हमारे लाला कन्हैया ने उठा रखा है। अच्छा उन दिनों राम कृष्ण की पूजा नहीं होती थी केबल देवी, देवताओं को ही पूजा जाता था।
तो मैया यशोदा ने अपनी आंखें बंद कर देवी मां को याद किया और प्रार्थना की – कि हे मां हमारे ऊपर जो ये भयानक संकट आया है इससे हमें उबारो। देवताओं के राजा इंद्र की पूजा बंद करने की वजह से उन्होंने नाराज होकर ये मूसलाधार बारिश की है जिससे समस्त ब्रज मंडल हम सभी ब्रजवासी समाप्त हो जायेंगे।
हे मां हम सभी आपकी शरण में आए हैं हमारी लाज रखो। हमें इस संकट से बचालो। बचालो। त्राहिमाम – त्राहिमाम।
तभी सबके देखते हुए एक चमत्कार हुआ। गोवर्धन गिरिराज पर्वत में से देखते ही देखते देवी मां प्रकट हो गईं। मन से स्मरण, याद करने पर मां का प्राकट्य हुआ इसलिए नाम पड़ा मनसा देवी। !! बोलिए मनसा मैया की जय !!
माता बोलीं कि हे गोपी तुम जिन्हें एक साधारण बालक समझ रही हो बो साधारण नहीं हैं चिंता मत करो। तुम सबको कुछ नहीं होगा। बेफिकर रहो। ऐसा कहा माता रानी ने और जिस स्थान पर्वत में से प्रगट हुईं थी वहीं समाहित हो गई। और चमत्कार की तो बात ये हुई कि जिस पर्वत के खंड में मां का स्वरूप समाहित हुआ वहां उनका स्वरूप बन गया।
यानी आज भी अगर अभिषेक के समय माता के स्वरूप का दर्शन किया जाए तो पर्वत में बिल्कुल स्पष्ट माता के अंगों के दर्शन होते हैं जैसे मुख की बनावट, आंख, मुंह, केश, चरण, सिंह के पंजे आदि। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के समय से लेकर आज तक माता मनसा देवी मात की महिमा निरंतर बनी हुई है। माता के इस मंदिर में मनसा देवी के साथ जयपुर से आईं सिंह पर सवार माता कैला देवी और भक्त लांगुरा भी विराजमान हैं।
स्थानीय लोग और आस – पास या दूर दराज रहने वाले भक्त परिवार की मान्यता है की मनसा देवी मां हमारी माता हैं और गोवर्धन गिरिराज जी हमारे पिता (गिरिराज बाबा)।
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