Sharad Purnima Vrat Vidhi and Katha in Hindi

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Maharas on Sharad Purnima
Maharas on Sharad Purnima

शरद पूर्णिमा व्रत विधि और कथा हिंदी में

हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा पूर्ण सोलह कलाओं से युक्त होता है, इसीलिए श्रीकृष्ण ने महारास लीला के लिए इस रात्रि को चुना था। इस रात चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है और मां लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह रात्रि स्वास्थ्य व सकारात्मकता प्रदान करने वाली मानी जाती है। हिन्दू धर्मशास्त्र में वर्णित कथाओं के अनुसार देवी देवताओं के अत्यंत प्रिय पुष्प ब्रह्मकमल केवल इसी रात में खिलता है। अपने यहां लगभग सभी पर्व दिन में मनाए जाते हैं, पर शरद पूर्णिमा ऐसा पर्व है, जिसे रात्रि में मनाए जाने का विधान है।

आश्विन मास की पूर्णिमा को दिन में कोजागर व्रत रखा जाता है और रात्रि में नृत्य के साथ, जिसे ‘कौमुदी उत्सव’ कहते हैं, खीर बना कर खुले आकाश के नीचे जाली से ढक कर रख देते हैं। इस रात चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है। यह पर्व बृजवासियों को सर्वाधिक प्रिय है। कारण यह कि इस रात कृष्ण ने गोपियों के साथ रास नृत्य किया था। श्रीकृष्ण द्वारा खेली गई लीला, जिसे महारास लीला कहते हैं, को समझने की दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक तो यह कि सारा ब्रह्मांड नृत्य रत है, बीच में प्रकाश पुंज स्वरूप कृष्ण तत्व स्थिर है और समस्त तारामंडल हैं बृज की गोपियां। इसी दृश्य की तुलना वृंदावन में हुए महारास से की जा सकती है। दूसरा अर्थ है इंद्रियों से बंधे जीव का पूर्ण पुरुष कृष्ण के साथ नर्तन।

इंद्रियों का अर्थ ‘गोपी’ भी होता है। जो अपनी इंद्रियों से भगवत रस का पान करे, उसे गोपी कहा जाता है। रासलीला में गोपियों के भी दो भेद हैं। नित्यसिद्धा व साधनसिद्धा। इनमें साधनसिद्धा गोपियों के भी कई प्रकार हैं। जैसे श्रुतिरूपा, ऋषिरूपा, अन्यपूर्वा व अनन्यपूर्वा आदि। जिन वेदाभिमानियों ने सिद्ध तो कर दिया कि ईश्वर है, पर स्वयं जिनका कृष्ण से साक्षात्कार नहीं हुआ, वे श्रुतिरूपा गोपी बन कर बृज में पैदा हुए। ऋषि जीवन जीकर भी जो श्रीकृष्ण को समझे नहीं, वे ऋषिरूपा गोपी बन कर बृज में पैदा हुए। वैवाहिक जीवन जीते हुए उस जीवन के प्रति अरुचि होने पर जो कृष्णोन्मुख हुए, वे अन्यपूर्वा गोपी बन कर वृंदावन में पैदा हुए और जो जन्म से ही वैरागी पैदा हुए, जैसे- मीरा या कि व्यासपुत्र, उन्हें अनन्यपूर्वा गोपी कहा जाता है।

गर्ग संहिता में आया है कि एक बार श्रीकृष्ण को कुंज तक आने में देर हुई। गोपियां बेहाल। कुछ देर बाद जब श्रीकृष्ण आए तो उन्होंने बताया कि यमुना के उस पार उनके गुरु दुर्वासा ऋषि ठहरे हैं। उन्हीं के दर्शन करके आते हुए देर हो गई। गोपियां चकित। उन्होंने कहा- अगर दुर्वासा ऋषि आपके भी गुरु हैं तो हमारा कर्तव्य बनता है कि उनके लिए पकवान बना कर ले जाएं। श्रीकृष्ण ने कहा- दुर्वासा सिर्फ दूर्वा का रस ही पीते हैं, फिर भी क्या पता, तुम्हारी निष्ठा देख कर पकवान ग्रहण कर लें। कई सारी गोपियां दुर्वासा के सत्कार के लिए स्वादिष्ट आहार का थाल लेकर चलीं। मगर यह क्या? यमुना में बाढ़ आई हुई थी।

उदास गोपियां श्रीकृष्ण के पास दुखड़ा रोती हुई आईं। श्रीकृष्ण ने कहा- दोबारा फिर यमुना के पास जाओ और कहो कि अगर कृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी रहा है और नितांत अनासक्त है तो हमें मार्ग दें। गोपियां मन ही मन हंसी कि हमेशा तो हमारे साथ रंगरेलियां मनाते हैं और कह रहे हैं अपने को अनासक्त योगी। फिर भी उन्होंने यमुना तट पर जाकर वही शब्द दोहराए। यमुना ने उसी क्षण गोपियों को राह दे दी। यमुना पार जाकर गोपियों ने दुर्वासा ऋषि को अपने हाथ से थाल पर थाल खिलाए। गोपियां जब लौट कर चलीं तो यमुना में फिर बाढ़ आई हुई थी।

गोपियों ने दुर्वासा के पास लौट कर अपनी परेशानी व्यक्त की। दुर्वासा ऋषि ने पूछा- आ कैसे पाई थीं? गोपियों ने श्रीकृष्ण के शब्द दोहरा दिए। उत्तर सुन कर दुर्वासा ने गोपियों से कहा- जाओ और जाकर यमुना से कहो कि दुर्वासा अगर नित्य उपवासी है तो हमें राह दें। वैसा ही हुआ। अचरज में डूबी गोपियां सोचने लगीं कि ये गुरु-शिष्य दोनों विचित्र हैं। एक ओर ढेर सारे पकवान भरे थाल डकार जाने वाला गुरु स्वयं को नित्य उपवासी कह रहा है और हमारे साथ रंगरेलियां मनाने वाला उनका शिष्य स्वयं को योगी ब्रह्मचारी बताता है। गोपियां नादान हैं। दरअसल श्रीकृष्ण और दुर्वासा दोनों आसक्ति रहित थे।

श्रीधर स्वामी के अनुसार श्रीकृष्ण ने गृहस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम दोनों को एक में मिला दिया था। ऐसे अनासक्त योगी श्रीकृष्ण की आराधना करने वाला धीरे-धीरे स्वयं भी निष्काम हो जाता है। कर्म वो भी करता है, मगर नितांत अनासक्त भाव से। (याद करें गीता का अनासक्त कर्म सिद्धांत) रासलीला में गोपियां पार्थिव शरीर का अतिक्रमण कर गई होती हैं। वे मात्र चिति तत्व हैं। इसीलिए भागवतकार ने कहा है- मायारहित शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है। रास में आत्म तत्व का परम तत्व में निर्विकार मिलन होता है। उसे काम लीला मानना कोरी नादानी है। वह काम लीला नहीं, काम विजय लीला है।

शरद पूर्णिमा व्रत विधि

इस पर्व को “कोजागरी पूर्णिमा” के नाम से भी जाना जाता है। नारदपुराण के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात मां लक्ष्मी अपने हाथों में वर और अभय लिए घूमती हैं। इस दिन वह अपने जागते हुए भक्तों को धन-वैभव का आशीष देती हैं। इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। शाम के समय चन्द्रोदय होने पर चांदी, सोने या मिट्टी के दीपक जलाने चाहिए। इस दिन घी और चीनी से बनी खीर चन्द्रमा की चांदनी में रखनी चाहिए। जब रात्रि का एक पहर बीत जाए तो यह भोग लक्ष्मी जी को अर्पित कर देना चाहिए। इस दिन मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए।

इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक सात्विक ब्राह्मणों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी। इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।

शरद पूर्णिमा व्रत कथा

एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है। उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया।

उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली-” तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया।

शरद पूर्णिमा की रात को सबसे उज्जवल चांदनी छिटकती है। चांद की रोशनी में सारा आसमान धुला नज़र आता है। ऐसा लगता है मनो बरसात के बाद प्रकृति साफ और मनोहर हो गयी है। माना जाता है कि इसी धवल चांदनी में मां लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण के लिए आती हैं। शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की मध्य रात्रि के बाद मां लक्ष्मी अपने वाहन उल्लू पर बैठकर धरती के मनोहर दृश्य का आनंद लेती हैं। साथ ही माता यह भी देखती हैं कि कौन भक्त रात में जागकर उनकी भक्ति कर रहा है।

इसलिए शरद पूर्णिमा की रात को कोजागरा भी कहा जाता है। कोजागरा का शाब्दिक अर्थ है कौन जाग रहा है। मान्यता है कि जो इस रात में जगकर मां लक्ष्मी की उपासना करते हैं मां लक्ष्मी की उन पर कृपा होती है। शरद पूर्णिमा के विषय में ज्योतिषीय मत है कि जो इस रात जगकर लक्ष्मी की उपासना करता है उनकी कुण्डली में धन योग नहीं भी होने पर माता उन्हें धन-धान्य से संपन्न कर देती हैं।

शरद पूर्णिमा का महत्व

ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी का जन्म शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए देश के कई हिस्सों में शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तब मां लक्ष्मी राधा रूप में अवतरित हुई। भगवान श्री कृष्ण और राधा की अद्भुत रासलीला का आरंभ भी शरद पूर्णिमा के दिन माना जाता है। शैव भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय का जन्म भी शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसी कारण से इसे कुमार पूर्णिमा भी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में इस दिन कुमारी कन्याएं प्रातः स्नान करके सूर्य और चन्द्रमा की पूजा करती हैं। माना जाता है कि इससे योग्य पति प्राप्त होता है।

बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः

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