Nandnandan Ki Abhinav Ringun Leela

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Nandnandan Ki Abhinav Ringun Leela
Nandnandan Ki Abhinav Ringun Leela

नन्दनन्दन की अभिनव रिंगण लीला

सुर-वनिताओं की वीणाविनिन्दित स्वर लहरी अंतरिक्ष को चीरकर नंद प्रांगण के मणिमय स्तम्भों में प्रतिध्वनित हो उठी

रिंगणकेलिकुले जननीसुखकारी।
ब्रजदृशि सुकृतस्फुरदवतारी।
वलियतबाल्य विलास!जयबलवलित हरे!

नन्दरानी चकित सी होकर एक क्षण के लिये आकाश की ओर देखने लगीं, परन्तु उनकी आँखें तो अपने नयनानन्द हृदयधन नीलमणि की छवि से निरन्तर परिव्याप्त थीं। उन्हे वहाँ भी उस नील गगन के वक्षःस्थल पर भी दीखा

सोभित का नवनीत लिये।
घुटुरून चलत, रेनु तन मण्डित, मुख दधि लेप किये।
चारू कपोल, लोल लोचन छवि, गोरोचन को तिलक दिये।
लट लटकन मनों मत्त मधुप गन, मादक मधुप पिये।
कठुला कंठ बज्र केहरि नख, राजत है सखि रूचिर हिये।
धन्य ‘सूर’ एकौ पल यह सुख, कहा भयो सत कल्प जिये।

नीलमणि श्यामसुन्दर के अरूण कर पल्लव में उज्जवल नवनीत है। नवनीरद श्रीअंगों को नचा-नचाकर घुटरूँअ चलते हुए वे घूम रहे हैं। प्रांगण के बड़भागी घूलिकणों से श्यामल अंग परिशोभित हैं। अरूण अधर तथा ओष्ठ धवल दधि से सने हैं। सुन्दर कपोल एवं चञ्चल नयनों की शोभा निराली ही है। उन्नत ललाट पर गोरोचन का तिलक है। मनोहर मुखारबिन्द पर घनकृष्ण केशों की घुँघराली लटें लहरा रही हैं। लटें ऎसी प्रतीत होती हैं मानो भ्रमर हों और श्यामसुन्दर के मनोहर मुखारविन्द का मधुर मधु पान करने आये हों। मधु पीकर मत्त हो गये हों और सुध-बुध भूले हुए अरविन्द पर अरबरा रहे हों।

कमनीय कण्ठ में कठुला शोभा पा रहा है। विशाल हृदय पर व्याघ्र नख आदि टोना-निर्वारक वस्तुओं से निर्मित माला झूल रही है। एक ओर इस छवि के क्षणभर दर्शन का आनन्द तथा दूसरी ओर सैकड़ों कल्पों का समस्त जीवन सुख, इन दोनों की तुलना में वह एक क्षण ही धन्य है। नन्दरानी ने आकाश से दृष्टि हटा ली तथा वह आँगन में किलकते हुए निलमणि को पुनः देखने लग गयी। आँखों के कोयो में आनन्दाश्रु छलक आये। यही दशा ब्रजनरेश नन्दराय जी की भी थी, जो कुछ दूरी पर खड़े हुए अपने पुत्र की रिंगण लीला निर्निमेष् नयनों से निहार रहे थे। अग्रज दाऊ भी पास ही बैठे आनन्दाम्बुधि में आकण्ठ निमग्न थे। दोनो भाई परस्पर अस्पष्ट कुछ बोलते और फिर खिल खिलाकर हँस पड़ते।

थोड़ी देर घुटरूँ चलकर अपने ही नूपुर की रूनझुन ध्वनि से चकित हो जाते।स्निग्ध गम्भीर मुद्रा में कुछ क्षण सोचने से लगते, फिर आगे बढ़ते। फिर रूनझुन शब्द होता तो फिर ठिठक जाते। ठहरते ही मणिमय आँगन में मनोहर मुखकमल प्रतिबिम्बित हो जाता और विस्फारित नेत्रों से बिम्ब की ओर देखने लगते। कभी बिम्ब को पकड़ने के उद्देश्य से उसके सिर पर हाथ रख देते। हाथ का व्यवधान आने से प्रतिबिम्ब लुप्त हो जाता तो श्यामसुन्दर आश्चर्य से जननी की ओर देखने लग जाते।

इस प्रकार बाललीलाधारी गोलोक बिहारी की अभिनव रिंगण लीला प्रारम्भ हुई तथा प्रतिक्षण नित नयी होकर बढ़ चली। यह कोई प्राकृत शिशु का स्वभावजात घुटरून तो था नहीं, जिसकी निश्चित सीमा हो। यह तो स्वयं भगवान ब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के चिदानन्दमय स्वरूपभूत रस सागर का एक तरंग विशेष था। बालकृष्ण लाल के घुटरूँ चलनें का समाचार विद्युत की तरह समस्त गोष्ठ में फैल चुका था। जूथ की जूथ भाग्यवती ब्रजवनिताये प्रतिदिन नन्द द्वार पर एकत्र हो जातीं और उस अनुपम लीला रस-सुधा का अतृप्त पान करके बलिहार जातीं।

एक गोपी पूछती –
नीलमणि ! तेरा मुख कहाँ है ?
उत्तर में नीलमणि मनोहर मुख पर अपनी अँगुली रख देते।
एक पूछती – तेरी आँख कहाँ है ?
नीलमणि काजल लगे कमलनयनों को गोपी की ओर मुँह कर झपका देते।
दूसरी गोपी पूछती –
अच्छा बता लाला तेरी नाक कौन सी है ? तो नंदनंदन प्राणायाम मुद्रा में नाक का स्पर्श कर देते।
“वाह-वाह! मेरे प्राणधन! अच्छा इस बार कान और चोटी तो दिखा दे।”
बाल कृष्ण झटपट कानों को छूकर और दोनो हाथों से सिर की ओर इशारा करते।
गोपिकाये आनन्द में डूब जातीं, हृदय आनंदातिरेक सें उछलने लगता।
इस तरह लीलामय के लीलारस प्रवाह से समस्त ब्रज प्लावित हो गया। फिर भी ब्रजवनिताओं की आँखें तृप्त नहीं होती वरन् उत्तरोत्तर वात्सल्य रस सिन्धु में डूबने और मधुरातिमधुर लीला देखने की चाह बढ़ती ही जाती।

जय बालकृष्ण कन्हाई की
जय गोपी प्रेम की
( लीला सूत्रधार – परम पूज्य श्री राधाबाबा जी )
सत्यजीत तृषित

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः

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