योगिनी एकादशी व्रत कथा एवं विधि
आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन योगिनी एकादशी व्रत का विधान होता है। यह बड़े बडे पापो को नाश करने वाली एकादशी है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका का काम करती है। इस शुभ दिन के उपलक्ष्य पर भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा, उपासना की जाती है। इस एकादशी के दिन पीपल के पेड की पूजा करने का भी विशेष महत्व है।
योगिनी एकादशी व्रत पूजा विधि
योगिनी एकादशी का महत्व तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इस व्रत को करने से समस्त पाप समूल नष्ट हो जाते हैं तथा मुक्ति प्राप्त होती है। योगिनी एकादशी का व्रत करने से पहले, रात्रि में ही व्रत नियम शुरु हो जाते हैं। योगिनी एकादशी व्रत दशमी तिथि कि रात्रि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि के प्रात:काल में दान कार्यो के बाद समाप्त होता है।
एकादशी तिथि के दिन प्रात: स्नान आदि के बाद, व्रत का संकल्प लिया जाता है। स्नान में मिट्टी का प्रयोग करना शुभ रहता है। इसके अतिरिक्त स्नान में तिल के लेप का प्रयोग भी किया जा सकता है। स्नान के बाद कुम्भ की स्थापना की जाती है, कुम्भ के ऊपर भगवान श्रीविष्णु जी कि प्रतिमा रख कर पूजा की जाती है। एकादशी व्रत की रात्रि में जागरण करना चाहिए। दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रती को तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिए और व्रत के दिन नमक युक्त भोजन भी नहीं किया जाता है। इसलिये दशमी तिथि की रात्रि में नमक का सेवन भी नहीं करना चाहिए।
योगिनी एकादशी व्रत कथा
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहते थे। उनका “हेममाली” नाम का एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाता था। हेममाली की एक पत्नी थी, जिसका नाम “विशालाक्षी” था। वह यक्ष कामपाश में वशीभूत होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर पर ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन न जा पाया। इधर कुबेर मन्दिर में भगवान शिव का पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहर तक फूलो के आने की प्रतीक्षा की। जब पूजा का समय निकल गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : “यक्षों ! दुरात्मा हेममाली कहा है, क्यों नहीं आ रहा है ?”
तब यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त होकर घर में ही रमण कर रहा है। यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलाया गया। हेममाली आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर कुबेर बोले : “अरे ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने आज भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से अन्यत्र चला जा।”
कुबेर के इतना कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया। और कोढ़ से उसका सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई थी। तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर पहुच गया। वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन प्राप्त हुये। पापकर्मा यक्ष हेममाली ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। महाऋषि मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : “तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?”
तब यक्ष बोला : महर्षि ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर भगवान शिव की पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान न ही रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिस के कारण मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया। मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में ही लगा रहता है, कृपया यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये।
महर्षि मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत के बारे में बताता हूँ। तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की “योगिनी एकादशी” का व्रत करो। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! महर्षि मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने “योगिनी एकादशी” का व्रत किया, जिससे पूण्य प्रभाव से हेममाली के शरीर का कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण रूपेण सुखी हो गया।
नृपश्रेष्ठ ! यह योगिनी एकादशी का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल प्राप्त होता है, वही पूण्य फल “योगिनी एकादशी” का व्रत करने वाले मनुष्य को मिलता है । “योगिनी एकादशी” का व्रत महान पापों को शान्त करने वाला और महान पुण्य फल देने वाला है। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने बाला मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
योगिनी एकादशी व्रत का महत्व
योगिनी एकादशी के व्रत की कथा श्रवण का फल अट्ठासी सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के समान माना गया है। इस व्रत के प्रभाव से समस्त पाप दूर होते है। भगवान श्री नारायण जी की मूर्ति को स्नान कराकर पुष्प, धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए और भोग लगाना चाहिए। इस दिन गरीब ब्राह्माणों को दान देना कल्याणकारी होता है।