भागवत गीता भाग १८ सारांश / निष्कर्ष :- संन्यास योग
यह गीता का समापन अध्याय है आरम्भ में ही अर्जुन का प्रश्न है प्रभो! मैं त्याग और संन्यास के भेद और स्वरूप को जानना चाहता हूँ। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस पर प्रचलित चार मतों की चर्चा की। इनमे एक सही भी था। इससे मिलता जुलता ही निर्णय योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दिया कि यज्ञ, दान और तप किसी काल में त्यागने योग्य नहीं है। ये मनुष्यों को भी पवित्र करने वाले है। इन तीनो को रखते हुए इनके विरोधी विचारो का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है। यह सात्विक त्याग है। फल की इच्छा के साथ त्याग राजस है, मोहवश नियत कर्म का ही त्याग करना तामस त्याग है और संन्यास त्याग की ही चरमोत्कृष्ट अवस्था है नियत कर्म और ध्यान जनित सुख सात्त्विक है। इन्दिर्यो और विषयों का भोग राजस है और तृप्ति दायक अन्न की उत्पति से रहित दु:खद सुख तामस है।
मनुष्य मात्र के द्वारा शास्त्र के अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य होने में पाच कारण है कर्त्ता (मन), पृथक्-पृथक् कारण ( जिनके द्वारा किया जाता है। शुभ पार लगता है तो विवेक, वैराग्य, शम, दम करण है। अशुभ पार लगता है तो काम, क्रोध, राग द्वेष इत्यादि कारण होंगे ) नाना प्रकार की इच्छाएँ ( इच्छाएँ अनन्त है, सब पूर्ण नहीं हो सकती। केवल वह इच्छा पूर्ण होती है जिसके साथ आधार मिल जाता है। ) , चौथा कारण है आधार ( साधन ) और पांचवा हेतु है देव ( प्रारब्ध या संस्कार )। प्रत्येक कार्य के होने में यही पांच कारण है, फिर भी जो कैवल्य स्वरूप परमात्मा को कर्त्ता मानता है, वह मूढ़बुद्धि यथार्थ नहीं जानता। अथार्त भगवान नहीं करते, जबकि पीछे कह आये है कि अर्जुन! तू निमित्त मात्र होकर खड़ा भर रह, कर्त्ता-धर्त्ता तो मैं हूँ। अन्तत: उन महापुरुष का आशय क्या है?
वस्तुतः प्रक्रति और पुरुष के बीच एक आकर्षण सीमा है। जब तक मनुष्य प्रक्रति में बरतता है, तब तक माया प्रेरणा करती है और जब वह इससे ऊपर उठकर इष्ट को समर्पित हो जाता है और वह इष्ट ह्रदय देश में रथी हो जाता है, फिर भगवान कहते है। ऐसे स्तर पर अर्जुन था, संजय भी था और सबके लिये इस ( कक्षा ) में पहुचने का विधान है। अत: भगवान यहाँ प्रेरणा करते है। पूर्ण ज्ञाता महापुरुष, जानने की विधि और ज्ञेय परमात्मा – इन तीनो के संयोग से कर्म की प्रेरणा मिलती है। इसलिये किसी अनुभवी महापुरुष ( सद्गुरु ) के सान्निध्य में समझने का प्रयास करना चहिये।
वर्ण-व्यवस्था के प्रश्न को चौथी बार लेते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, एकाग्रता, शरीर वाणी और मन को इष्ट के अनुरूप तपाना, ईश्वरीय जानकारी का संचार, ईश्वरीय निर्देशन पर चलने की क्षमता इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलाने वाली योग्यताये ब्राह्मण श्रेणी के कर्म है। शौर्य, पीछे न हटने का स्वाभाव, सब भावो पर स्वामीभाव, कर्म में प्रवृत्त होने की दक्षता क्षत्रिय श्रेणी का कर्म है। इन्द्रियों का संरक्षण, आत्मिक सम्पति का संवर्द्धन इत्यादि वैश्य श्रेणी के कर्म है और परिचर्या शूद्र श्रेणी का कर्म है। शूद्र का अर्थ है अल्पज्ञ। अल्पज्ञ साधक जो नियत कर्म चिन्तन में दो घंटे बैठकर दस मिनट भी अपने पक्ष में नहीं पता। शरीर अवश्य बैठा है, लेकिन जिस मन को टिकाना चाहिये, वह तो हवा से बाते कर रहा है। ऐसे साधक का कल्याण कैसे हो? उसे अपने से उत्पन्न अवस्था वालो की अथवा सद्गुरु की सेवा करनी चाहिये। शनै:-शनै: उसमे भी संस्कारो का सृजन होगा, वह गति पकड़ लेगा। अत: इस अल्पज्ञ का कर्म सेवा से ही प्रारंभ होगा। कर्म एक ही है नियत कर्म, चिन्तन। उसके कर्ता के चार श्रेणियाँ– अति उत्तम, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है। मनुष्य को नहीं बल्कि गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागो में बाँटा गया। गीतोक्त वर्ण इसने में ही है।
तत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि – अर्जुनं! उस परमसिद्धि की विधि बताऊँगा, जो ज्ञान की परानिष्ठा है। विवेक, वैराग्य, शम, दम, धारावाही चिन्तन और ध्यान की प्रवति इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिला देने वाली सारी योग्यताएँ जब परिपक हो जाती है और काम, क्रोध, मोह, राग, द्वेषादि प्रकृति में घसीटकर रखने वाली प्रवृत्तियाँ जब पूर्णत: शांत हो जाती है, उस समय वह व्यक्ति ब्रह्म को जानने योग्य होता है। उसी योग्यता का नाम पराभक्ति है। पराभक्ति के द्वारा ही वह तत्व को जनता है। तत्व क्या है? बताया – मैं जो हूँ, जिन विभूतयो से युक्त हूँ, उनको जनता हैंअथार्त परमात्मा जो है, अव्यक्त, शाश्वत अपरिवर्तनशील जिन अलौकिक गुणधर्मों वाला है, उसे जनता है और जानकर वह तत्क्षण मुझमें स्थित हो जाता है अत: तत्त्व है परमतत्त्व, न की पाच या पचीस तत्व। प्राप्ति के साथ आत्मा उसी स्वरूप में स्थित हो जाती है, उन्ही गुणधर्मों से युक्त हो जाता है।
ईश्वर निवास बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! वह ईश्वर सम्पूर्ण भूतो के ह्रदय देश में निवास करता है, किन्तु माया रुपी यन्त्र में अरुण होकर लोग भटक रहे है, इसलिये नहीं जानते। अत: अर्जुन तू ह्रदय मे स्थित उस ईश्वर की शरण जा। इससे भी गोपनीय एक रहस्य और है कि सम्पूर्ण धर्मो की चिन्ता छोड़कर तू मेरी शरण में आ, तू मुझे प्राप्त होगा। यह रहस्य अनधिकारी से नहीं कहना चाहिये। जो भक्त नहीं है उससे नहीं कहना चहिये। लेकिन जो भक्त है उससे अवश्य कहना चहिये। उससे दुराव रखे तो उसका कल्याण कैसे होगा? अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूछा- अर्जुन! मैंने जो कुछ कहा, उसे तूने भली प्रकार सुना-समझा, तुम्हारा मोह नष्ट हुआ कि नहीं? अर्जुन ने कहा- भगवन मेरा मोह नष्ट हो गया है। मैं अपनी स्मृति को प्राप्त हो गया हूँ। आप जो कुछ कहते है वही सत्य है और अब मैं वही करूँगा।
संजय, जिसने इन दोनों के संवाद को भली प्रकार सुना है। अपना निर्णय देता है कि श्रीकृष्ण महायोगेश्वर और अर्जुन एक महात्मा है। उनका संवाद बारम्बार स्मरण कर वह हर्षित हो रहा है अत: इसका स्मरण करते रहना चाहिये ध्यान करते रहना चाहिये। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण है और जहाँ महात्मा अर्जुन है, वही श्री है। विजय-विभूति और ध्रुवनीति भी वही है। सृष्टि की नीतिया आज है तो कल बदलेंगी। ध्रुव तो एकमात्र परमात्मा है। उसमें प्रवेश दिलाने वाली निति ध्रुवनीति भी वही है। यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन को द्वापरकालीन व्यक्ति विशेष मान लिया जाए तब तो आज न अर्जुन है और न श्रीकृष्ण। आपको न विजय मिलनी चहिये और न विभूति। तब तो गीता आपके लिए व्यर्थ है। लेकिन नहीं, श्रीकृष्ण एक योगी थे। अनुराग से पूरित ह्रदय वाला महात्मा ही अर्जुन है। ये सदैव रहते है और रहेंगे। श्रीकृष्ण ने अपना परिचय देते हुए कहा कि – मैं हूँ तो अव्यक्त, लेकिन जिस भाव को प्राप्त हूँ, वह ईश्वर सबके ह्रदय देश में निवास करता है। वह सदैव है और रहेगा। सबको उनकी शरण जाना है। शरण जाने वाला ही महात्मा है, अनुरागी है और अनुराग ही अर्जुन है। और इसके लिये किसी स्थित प्रज्ञ महापुरुष की शरण जाना नितान्त आवश्यक है, क्योकि वही इसके प्रेरक है।
इस अध्याय में संन्यास का स्वरुप स्पष्ट किया गया की सर्वस्व का न्यास ही संन्यास है। केबल बाना धारण कर लेना संन्यास नहीं है, बल्कि इसके साथ एकांत का सेवन करते हुए नियत कर्म में अपनी शक्ति समझकर अथवा समर्पण के साथ सतत प्रयत्न अपरिहार्य है। प्राप्ति के साथ सम्पूर्ण कर्मो का त्याग ही संन्यास है, जो मोक्ष का पर्याय है। यही संन्यास की पराकाष्ठा है अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “संन्यास योग” नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
possitive enargy for all world …
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Jai Shri RadheKrishna Jitendra Ji,
Thanks for aprications.
Radhe Radhe
Quite hard to understand presented with all passive voice
Sweet voice