भागवत गीता भाग १७ सारांश / निष्कर्ष :- ॐतत्सत् व श्रद्धात्रय विभाग योग
अध्याय के आरम्भ में ही अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवन! जो शास्त्रविधि को त्याग कर और श्रद्धा से युक्त होकर यजन करते है ( लोग भुत, भवानी अन्यान्य पूजते ही रहते है) तो उनकी श्रद्धा कैसी है? सात्त्विकी है, राजसी है अथवा तामसी? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा। अर्जुन! यह पुरुष श्रद्धा का स्वरुप है, कही न कही उसकी श्रद्धा होगी ही। जैसी श्रद्धा वैसा पुरुष, जैसी वृत्ति वैसा पुरुष। उनकी वह श्रद्धा सात्विक, राजसी और तामसी तीनो प्रकार की होती है। सात्विक श्रद्धा वाले देवताओं को, राजसी श्रद्धा वाले यक्ष ( जो यश, शौर्य प्रदान करते है ), राक्षसों ( जो सुरक्षा दे सके ) का पीछा करते है और तामसी श्रद्धा वाले भूत प्रेतों को पूजते है। शास्त्र विधि से रहित इन पूजाओ द्वारा ये तीन प्रकार के श्रद्धालु शरीर में स्थित भूत समुदाय अथार्त अपने संकल्पों और ह्रदय देश में स्थित मुझ अन्तरयमी को भी कृश करते है, न कि पूजते है। उन सबको निश्चय ही तू असुर जान अथार्त भुत, प्रेत, यक्ष, राक्षस तथा देवताओं को पूजने वाले असुर है।
देवता प्रसंग को श्रीकृष्ण ने यहाँ तीसरी बार उठाया है। पहले अध्याय सात में उन्होंने कहा कि अर्जुन! कामनायो ने जिनका ज्ञान हर लिया है, वही मूढ़बुद्धि अन्य देवताओं की पूजा करते है। दूसरी बार अध्याय नौ में उसी प्रश्न को दोहराते हुए कहा – जो अन्यान्य देवताओं की पूजा करते है, वे मुझे ही पूजते है, किन्तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अथार्त शास्त्र में निर्धारित विधि से भिन्न है, अत: वह नष्ट हो जाता है। यहाँ अध्याय सत्रह उसी असुरी स्वभाव वाला कहकर संबोधित किया। श्रीकृष्ण के शब्दों में एक परमात्मा की ही पूजा का विधान है।
तदंतर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने चार प्रश्न लिये- आहार, यज्ञ, तप और दान। आहार तीन प्रकार के होते है। सात्त्विक पुरुष को तो आरोग्य प्रदान करने वाले, स्वाभिक प्रिय लगने वाले, स्निग्ध आहार प्रिय होते है।तामस पुरुष को जूठा, बासी और अपवित्र आहार प्रिय होता है।
शास्त्रविधि से निर्दिष्ट यज्ञ ( जो आराधना की अन्त: क्रियाएँ है ) जो मन का निरोध करता है, फलाकांक्षा से रहित वह यज्ञ सात्त्विक है। दम्भ-प्रदर्शन प्रदर्शन तथा फल के लिये किया जाने वाला वही यज्ञ राजस है और शास्त्रविधि से रहित, मन्त्र, दान तथा बग़ैर श्रद्धा से किया हुआ यज्ञ तामस है।
परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाली सारी योग्यताएँ जिनमे है, उन प्राज्ञ सद्गुरु की अर्चना, सेवा और अन्त: करण से अहिंसा, ब्रह्मचर्य और पवित्रता के अनुरूप शरीर को तपाना शरीर का तप है। सत्य प्रिय और हितकर बोलना वाणी का तप है और मन को कर्म में प्रवृत्त रखना, इष्ट के अतिरिक्त विषयों के चिन्तन में मन को मोन रखना मन सम्बन्धी तप है। मन, वाणी और शरीर तीनो मिलाकर इस ओर तपाना सात्त्विक तप है। राजस तप कमनायाओ के साथ उसी को किया जाता है, जबकि तामस तप शास्त्रविधि से रहित स्वेच्छाचार है।
कर्त्तव्य मानकर देश काल और पात्र का विचार करके श्रद्धा पूर्वक दिया जाने वाला दान सात्त्विक है। किसी लाभ के लोभ में कठिनाई से दिया जाने वाला दान राजस है और झिड़ककर कुपात्र को दिया जाने वाला दान तामस है।
ॐ, तत् और सत् का स्वरुप बताते हुये श्रीकृष्ण ने कहा कि ये नाम परमात्मा की स्मृति दिलाते है। शास्त्रविधि से निर्धारित तप, दान और यज्ञ आरम्भ करने में ओम् प्रयोग होता है और पूर्ति में ही ओम् पिण्ड छोड़ता है। तत का अर्थ है वह परमात्मा , उसके प्रति समर्पित होकर ही वह कर्म होता है और कर्म जब धारावाही होने लगे, तब सत् का प्रयोग होता है। भजन ही सत् है। सत् के प्रति भाव और साधुभाव में ही सत् का प्रयोग किया जाता है। परमात्मा की प्राप्ति करा देने वाले कर्म यज्ञ, दान और तप के परिणाम में भी सत् का प्रयोग है और परमात्मा में प्रवेश दिला देने वाला कर्म निश्चय पूर्वक सत् है किन्तु इन सबके साथ श्रद्धा आवश्यक है श्रद्धा से रहित होकर किया हुआ कर्म, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप न इस जन्म में लाभकारी है, न अगले जन्मो में ही। अत: श्रद्धा अपरिहार्य है।
सम्पूर्ण अध्याय में श्रद्धा पर प्रकाश डाला गया और अन्त में ॐ, तत् और सत् विशद व्याख्या प्रस्तुत की गयी, जो गीता के श्लोकों में पहली बार आया है। अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “ॐतत्सत् व श्रद्धात्रय विभाग योग” नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।