भागवत गीता भाग १६ सारांश / निष्कर्ष :- दैवासुर सम्पद् विभाग योग
इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दैवी सम्पद का विस्तार से वर्णन किया। जिसमें ध्यान में स्थिति, सर्वस्व का समर्पण, अन्त: करण की शुद्धि इन्द्रियों का दमन, मन का समन, स्वरूप को स्मरण दिलाने वाला अध्ययन, यज्ञ के लिये प्रयत्न, मनसहित इन्द्रियों को तपाना, अक्रोध, चित्त का शान्त प्रवाहित रहना इत्यादि छब्बीस लक्षण बताये, जो सब के सब तो इष्ट के समीप पहुचें हुए योग-साधना में प्रवृत्त किसी साधक में सम्भव है। आंशिक रूप से सब में है।
तदंतर उन्होंने आसुरी सम्पद में प्रधान चार से छ: विकारो का नाम लिया, जैसे अभिमान, दम्भ, कठोरता, अज्ञान इत्यादि और अन्त में निर्णय दिया कि अर्जुन! दैवी सम्पद तो ‘विमोक्षाय’- पूर्ण निवृत्ति के लिये है, परमपद की प्राप्ति के लिए है और असुरी सम्पद बंधन और अधोगति के लिये है। अर्जुन! तू शोक न कर, क्योकि तू दैवी सम्पद को प्राप्त हुआ है।
ये सम्पदाएँ होती कहा है? उन्होने बताया की इस लोक में मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के होते है देवताओं-जैसा और असुरो जैसा। जब दैवी सम्पद का बाहुल्य होता है तो मनुष्य असुरो जैसा है। सृष्टि में बस मनुष्यों की दो ही जाति है चाहे वह कही पैदा हुआ हो, कुछ भी कहलता हो।
तत्पश्चात् उन्होंने ससुरी स्वभाव वाले मनुष्यों के लक्षणों का विस्तार से उल्लेख किया। आसुरी सम्पद को प्राप्त पुरुष कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्त होना नहीं जानता और अकर्त्तव्य कर्म से निवृत्त होना नहीं जानता। वह कर्म में जब प्रवृत्त ही नहीं हुआ तो न उसमें सत्य होता है, न शुद्धि और न आचारण ही होता है। उसके विचार में जगत आश्रय रहित, बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री-पुरुष के सयोग से उत्पन्न हुआ है, अत: केवल भोग भोगने के लिए है। इससे आगे क्या है? यह विचार कृष्ण काल में भी था। सदैव रहा है। केवल चार्वाक ने कहा हो, ऐसी बात नहीं है। जब तक जन मानस में दैवी-आसुरी सम्पद का उतार-चढ़ाव है तब तक रहेगा। श्रीकृष्ण कहते है वे मन्दबुद्धि वाले पुरुष सबका अहित (कल्याण का नाश) करने के लिए ही जगत में पैदा होते है। वे कहते है मेरे द्वारा यह शत्रु मारा गया, उसे मरूँगा। इस प्रकार अर्जुन! कम-क्रोध के आश्रित वे पुरुष शत्रुओ को नहीं मारते वल्कि अपने और दुसरो के शरीर में स्थित मुझ परमत्मा से द्वेष करने वाले है। तो क्या अर्जुन ने प्रण करके जयद्रथादि को मारा? यदि मरता है तो आसुरि सम्पद वाला है, उस परमात्मा से द्वेष करने वाला है, जबकि अर्जुन को श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि तू दैवी सम्पद को प्राप्त हुआ है, शोक मत कर। यहाँ भी स्पष्ट हुआ कि ईश्वर का निवास सबके ह्रदय देश में है स्मरण रखना चहिये कि तुम्हे सतत देख रहा है। अत: सदैव शास्त्रनिर्दिष्ट क्रिया ही आचरण करना चहिये अन्यथा दण्ड प्रस्तुत है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पुन: स्वयं कहा कि आसुरी स्वभाव वाले क्रूर मनुष्यों को मैं बारम्बार नरक में गिरता हूँ। नरक का स्वरूप क्या है? तो बताया, बारम्बार नीच-अधम योनियों में गिरना एक दुसरे का पर्याय है। यही नरक का स्वरुप है। काम, क्रोध और लोभ नरक के तीन मूल द्वार है। इन तीनो पर ही उस कर्म का आरम्भ होता है। जिसे मैंने बार-बार बताया है। सिद्ध है कि कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जिसका आरम्भ काम, क्रोध और लोभ को त्याग देने पर ही होता है।
सांसारिक कार्यो में, मर्यादित ढंग से सामजिक व्यवस्थाओं का निर्वाह करने में भी जो जितने व्यस्त है काम, क्रोध और लोभ उनके पास उतने अधिक सजे-सजाये मिलते है। वस्तुत: इन तीनो के त्याग देने पर ही परम में प्रवेश दिलाने वाले निर्धारित कर्म में प्रवेश मिलता है। इसलिए मैं क्या करूँ, क्या न करूँ? इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था मैं शास्त्र ही प्रमाण है। कौन-सा शास्त्र? यही गीताशास्त्र ‘किमन्यै शास्त्रविस्तरै:।’ इसलिये इस शास्त्र द्वारा निर्धारित किये हुये कर्म विशेष (यज्ञार्थ कर्म) को ही तू कर।
इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी दोनो सम्पदाओं का विस्तार से वर्णन किया। उनका स्थान मानव ह्रदय बताया। उनका फल बताया। अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “दैवासुर सम्पद् विभाग योग” नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।