भागवत गीता भाग १३ सारांश / निष्कर्ष :- क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
गीता के आरम्भ में धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र का नाम तो लिया गया, किन्तु वह क्षेत्र वस्तुत: है कहा? वह स्थल बताना शेष था, जिसे स्वयं शास्त्रकार ने प्रस्तुत अध्याय में स्पष्ट किया। कौन्तेय! यह शरीर ही एक क्षेत्र है। जो इसको जनता है, वह क्षेत्रज्ञ है। वह इसमें फँसा नहीं बल्कि निर्लेप है। इसका संचालक है। ” अर्जुन! सम्पूर्ण क्षेत्रों में मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ। ” अन्य महापुरुषो से अपनी तुलना की। इससे स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण भी एक योगी थे क्योकि जो जनता है वह क्षेत्रज्ञ है, ऐसा महापुरुषो ने कहा है। मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ अथार्त अन्य महापुरुषों की तरह मैं भी हूँ।
उन्होंने क्षेत्र जैसा है, जिन विकारो वाला है तथा क्षेत्रज्ञ जिन प्रभावों वाला है, उस पर प्रकाश डाला। मैं ही कहता हूँ ऐसी बात नहीं, महर्षियों ने भी यही कहा है। वेद के छन्दों में भी उसी को विभाजित करके दर्शाया गया है। ब्रह्मसूत्र में भी वही मिलता है।
शरीर ( जो क्षेत्र ) है क्या इतना ही है, जितना दिखयी देता है? इसके होने के पीछे जिसका बहुत बड़ा हाथ है, उन्हें गिनाते हुये बताया कि अष्टधा मूल प्रक्रति, अव्यक्त प्रक्रति, दस इन्द्रियाँ और मन, इन्द्रियाँ के पांचो विषय, आशा, तृष्णा और वासना – इस प्रकार इन विकारो का सामूहिक मिश्रण यह शरीर है। जब तक ये रहेंगे, तब तक ये शरीर किसी न किसी रूप में रहेगा ही। यह ही क्षेत्र है जिसमें बोया भला बुरा बीज संस्कार रूप में उगता है। जो इसका पार पा लेता है, वह क्षेत्रज्ञ है। क्षेत्रज्ञ का स्वरूप बताते हुये उन्होंने ईश्वरीय गुणधर्मों पर प्रकाश डाला और कहा कि क्षेत्रज्ञ इस क्षेत्र का प्रकाशक है।
उन्होंने बताया की साधना के पूर्तिकाल में परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ही ज्ञान है। ज्ञान का अर्थ है साक्षात्कार। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, अज्ञान है। जानने योग्य वस्तु है परात्पर ब्रह्म। वह न सत है न असत- इन दोनों से परे है। उसे जानने के लिये लोग ह्र्दय में ध्यान करते है, बाहर मूर्ति रखकर नहीं। बहुत से लोग सांख्य-माध्यम से ध्यान करते है, शेष निष्काम कर्मयोग, सम्पूर्ण के साथ उसकी प्राप्ति के लिये उसी निर्धारित कर्म आरधना का आचरण करते है। वे भी परम कल्याण को प्राप्त हो जाते है अत: कुछ भी समझ न आये तो उसके ज्ञाता महापुरुष का सत्संग आवश्यक है।
स्थितप्रज्ञ महापुरुष के लक्षण बताते हुये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि- जैसे आकाश सर्वत्र सम रहता हुआ भी निर्लेप है, जैसे सूर्य सर्वत्र प्रकाश करते हुये भी निर्लेप है, ठीक उसी प्रकार स्थितप्रज्ञ, पुरुष सर्वत्र सम ईश्वर को जैसा है वेसा ही देखने की क्षमता वाला पुरुष क्षेत्र से अथवा प्रक्रति से सर्वथा निर्लेप है। अन्त में उन्होंने निर्णय दिया कि क्षमता वाला पुरुष क्षेत्र से अथवा प्रक्रति से सर्वथा निर्लेप है। अन्त में उन्होंने निर्णय दिया कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की जानकारी ज्ञानरूपी नेत्रों द्वारा ही सम्भव है। ज्ञान जैसा की पीछे बताया गया, उस परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन के साथ मिलने वाली जानकारी है।
शास्त्रों को बहुत रटकर दुहराना ज्ञान नहीं बल्कि अध्ययन तथा महापुरुषों से उस कर्म को समझकर, उस कर्म पर चलकर मनसहित इन्द्रियों के निरोध और उस निरोध के भी विलयकाल में परमतत्व को देखने के साथ जो अनुभूति होती है, उसी अनुभूति का नाम ज्ञान है। क्रिया आवश्यक है। इस अध्याय में मुख्यत: क्षेत्रज्ञ का विस्तार से वर्णन किया गया है। वस्तुत क्षेत्र का स्वरूप व्यापक है। शरीर कहना तो सरल है किन्तु शरीर का सम्बन्ध कहाँ तक है? तो समग्र ब्रह्माण्ड मूल प्रक्रति का विस्तार है। अनन्त अन्तरिक्षों तक आपके शरीर का विस्तार है। उनसे आप का जीवन ऊर्जस्वी है, उनके विना आप जी नहीं सकते। यह भूमंडल, विश्व, जगत, देश, प्रदेश और आपका यह दिखाई देने वाला शरीर उस प्रकर्ति का एक टुकड़ा भी नहीं है। इस प्रकार क्षेत्र का ही इस अध्याय में विस्तार से वर्णन है अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ” क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग ” नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।