Shrimad Bhagavad Gita Chapter-12 (Part-12) in Hindi.mp3

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Geeta Updesh Shri Krishna
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भागवत गीता भाग १२ सारांश / निष्कर्ष :- भक्तियोग

गत अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि- अर्जुन! तेरे सिवाय न कोई पाया है, न कोई पा सकेगा। जैसा तू ने देखा, किन्तु अनन्य भक्ति अथवा अनुराग से जो भजता है, वह इसी प्रकार मुझे देख सकता है, तत्व के साथ मुझे जान सकता है और मुझमें प्रवेश भी पा सकता है। अथार्त परमात्मा ऐसी सत्ता है, जिसको पाया जाता है। अत: अर्जुन भक्त बन।

अर्जुन ने इस अध्याय में प्रश्न किया कि- भगवन! अनन्य भाव से जो आपका चिन्तन करते है और दुसरे वे जो अक्षर अव्यक्त की उपासन करते है, इन दोनों में उत्तम योगवेत्ता कौन है? योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि दोनों मुझे ही प्राप्त होते है क्योंकि मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ। किन्तु जो इन्द्रियों को वश में रखते हुये मन को सब ओर से समेटकर अव्यक्त परमात्मा में आसक्त है, उनके पथ में कलेश विशेष है। जब तक देह का अध्यास (भान) है, तब तक अव्यक्त स्वरूप की प्राप्ति दु:खपूर्ण है, क्योकि अव्यक्त स्वरूप तो चित्त के निरोध और विलयकाल में मिलेगा। उसके पूर्व उसका शरीर ही बीच में बाधक बन जाता है। मैं हूँ, मैं हूँ, मुझे पाना है- कहते है अपने शरीर की ओर घूम जाता है। उसके लड़खड़ाने की अधिक सम्भावना है। अत: अर्जुन! तू सम्पूर्ण कर्मो को मुझमें अर्पण करके मानव शरीरधारी मुझ सगुण योगी के रूप का ध्यान द्वारा तैलधारावत् निरन्तर चिन्तन करते है, उनका मैं शीघ्र संसार – सागर से उद्धार करने वाले हो जाता हूँ। अत: भक्तिमार्ग श्रेष्ठ है।

अर्जुन! मुझमें मन को लगा। मन न लगे तो भी लगाने का अभ्यास कर। जहाँ भी चित जाय, पुनः घसीटकर उसका निरोध कर। यह भी करने में असमर्थ है तो तू कर्म कर। कर्म एक ही है, यज्ञार्थ कर्म। तू कार्यम् कर्म करता भर जा, दूसरा न कर। उतना ही कर, पार लगे चाहे न लगे। यदि यह भी करने में असमर्थ है तो स्थितप्रज्ञ, आत्मवान्, तत्त्वज्ञ महापुरुष की शरण होकर सम्पूर्ण कर्मफलो का त्याग कर। ऐसा त्याग करने से तू परमशान्ति को प्राप्त हो जायेगा।

तत्पश्चात् परमशान्ति को प्राप्त हुये भक्त के लक्षण बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- जो समूर्ण भूतो में द्वेषभाव से रहित है, जो करुणा से युक्त और दयालु है, ममता और अहंकार से रहित है, वह भक्त मुझे प्रिय है। जो ध्यान योग में निरन्तर तत्पर और आत्मवान्, आत्मस्थित है, वह भक्त मुझे प्रिय है। जिससे न किसी को उद्वेग प्राप्त होता है और स्वयं भी जो किसी से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। शुद्ध है, दक्ष है, व्यथाओं से उपराम है, सर्वारम्भों को त्यागकर जिसने पार पा लिया है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागी और शुभाशुभों का पार पाने वाला भक्त मुझे प्रिय है। जो निंदा और स्तुति में समान और मोंन है, मनसहित जिनकी इन्द्रियाँ शान्त और मौन है, जो किसी भी प्रकार शरीर-निर्वाह में संतुष्ट और रहने के स्थान में ममता से रहित है, शरीर-रक्षा में भी जिनकी आसक्ति नहीं है, ऐसा स्थितप्रज्ञ पुरुष मुझे प्रिय है।

इस प्रकार श्लोक ग्यारह से उन्नीस तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने शान्तिप्राप्त योगयुक्त भक्त की रहनी पर प्रकाश डाला, जो साधको के लिये उपादेय है। अन्त में निर्णय देते हुये उन्होंने कहा- अर्जुन! जो मेरे परायण हुए अनन्य श्रद्धा से युक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुये धर्ममय अमृत को निष्कामभाव से भली प्रकार आचरण में ढालते है, वह भक्त मुझे अतिशय प्रिय है। अत: समर्पण के साथ इस कर्म में प्रवृत्त होना श्रेयतर है, क्योकि उसके हानि-लाभ की जिम्मेदारी वह इष्ट सदगुरु अपने ऊपर ले लेते है। यहाँ श्रीकृष्ण ने स्वरूपस्थ महापुरुष के लक्षण बताये, उनकी शरण में जाने को कहा और अन्त में अपनी शरण में आने की प्रेरणा देकर उन महापुरुषों के समकक्ष अपने को घोषित किया। श्रीकृष्ण एक योगी है, महात्मा थे। इस अध्याय में भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया, अत: इस अध्याय का नामकरण “भक्तियोग” युक्तिसंगत है। अत: –

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “भक्तियोग” नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।

Swami Shri Adgadanand Ji Maharaj
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