भागवत गीता भाग ९ सारांश / निष्कर्ष :- राजविद्या-जागृति
इस अध्याय के आरम्भ मै श्रीकृष्ण ने कहा – अर्जुन! तुझ दोषरहित भक्त के लिये मैं इस ज्ञान को विज्ञानं सहित कहूँगा, जिसे जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा। इसे जानकर तू संसार बंधन से छुट जायेगा। यह ज्ञान सम्पूर्ण विधियाओ का राजा है विद्या वह है जो परमब्रह्म में प्रवेश दिलाये। यह ज्ञान उसका भी राजा है अथार्त निश्चय ही कल्याण करने वाला है। यह सम्पूर्ण गोपनीयों का भी राजा है, गोपनीय वस्तु को भी प्रत्यक्ष करने वाला है। यह प्रत्यक्ष फलवाला, साधन करने मै सुगम और अविनाशी है। इसका थोडा साधन आप को पार लगा जाये तो इसका कभी नाश नहीं होता वरन इसके प्रभाव से वह परमश्रेय तक पहुचं जाता है, किन्तु इसमें एक शर्त है। श्रद्धाविहीन पुरुष परमगति को न प्राप्त होकर संसार-चक्र में भटकता है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग के ऐश्वर्य पर भी प्रकाश डाला। दुःख के सयोग का वियोग ही योग है अथार्त जो संसार के संयोग वियोग से सर्वथा रहित है। उसका नाम योग है। परमतत्व परमात्मा के मिलने का नाम योग है परमात्मा की प्राप्ति ही योग की पराकाष्ठा है। जो इसमें प्रवेश पा गया, उस योगी के प्रभाव को देख कि सम्पूर्ण भूतो का स्वामी और जीवधारियों का पोषण करने वाला होने पर भी मेरा आत्मा उन भूतो में स्थित नहीं है। आत्मस्वरूप में स्थित हूँ। वही हूँ। जैसे आकाश से उत्पन सर्वत्र विचरने वाला वायु आकाश में ही स्थित है किन्तु उसे मलिन नहीं कर पाता उसी प्रकार सम्पूर्ण भुत मुझमें स्थित है लेकिन में उनमे लीन नहीं हूँ।
अर्जुन कल्प के अदि में मैं भूतो को विशेष प्रकार से रचता हूँ, सजाता हूँ और कल्प के पूर्तिकाल में सम्पूर्ण भुत मेरी प्रकर्ति को अथार्त योगरूढ़ महापुरुष की रहनी को, उनके अव्यक्त भाव को प्राप्त होते है। यद्यपि महापुरुष प्रकर्ति से परे है, किन्तु प्राप्ति के पश्चात स्वभाव अथार्त स्वयं में स्थित रहते हुये लोक संग्रह के लिये जो कार्य करता है वह उसकी एक रहनी है। इसी रहनी के कार्य कलाप को उस महापुरुष की प्रकर्ति कहकर संबोधित किया गया है।
एक रचयिता तो में हूँ, भूतो को कल्प के लिए प्रेरित करता हूँ और दूसरी रचयिता त्रिगुणमयी प्रकर्ति है, जो मेरे अध्याय से चाराचर सहित भूतो को रचती है। यह भी एक कल्प है। जिसमें शरीर परिवर्तन और काल परिवर्तन निहित है तुलसीदास भी यही कहते है
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकुपा।।
प्रकर्ति के दो भेद विधा और अविधा है। इनमें अविधा दुष्ट है, दुख रूप है जिससे विवश जीव भवकूप में पड़ा है, जिससे प्ररित होकर जीव काल, कर्म, स्वभाव और गूढ़ के घेरे में आ जाता है। दूसरी है विधामाया, जिसे श्रीकृष्ण कहते है की मैं रचता हूँ। गोस्वामी जी के अनुसार प्रभु रचते है।
एक रचइ जग गुन बस जाके। प्रभु प्ररित नहि निज बल ताकें।।
यह जगत की रचना करती है, जिनके आश्रित गुण है। कल्याणकारी गुण एकमात्र ईश्वर में है प्रकर्ति में गुण है ही नहीं, वह तो नश्वर है लेकिन बिद्या में प्रभु ही प्ररक बनकर करते है।
इस प्रकार कल्प दो प्रकार के है। एक तो वस्तु का, शरीर और काल का परिवर्तन कल्प यह परिवर्तन प्रकर्ति ही मेरे आभास से करती है। किन्तु इसमें महान कल्प जो आत्मा को निर्मल स्वरूप प्रदान करता है, उसका शृंगार महापुरुष करते है। वे अचेत भूतो को सचेत करते है भजन का आदि हि इस कल्प का आरम्भ है और भजन की पराकाष्ठा कल्प का अन्त है। जब यह कल्प भवरोग से पूर्ण निरोग वनाकर शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश ( स्थिति ) दिला देता है, प्रवेश काल में योगी मेरी रहनी और मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। के पश्चात महापुरुष की रहनी ही उसकी प्रकर्ति है।
धर्मग्रंथों में कथानक मिलते है कि चारो युग बिताने पर ही कल्प पूर्ण होता है, महाप्रलय होता है। प्राय लोग इसे यथार्त नहीं समझते। युग का अर्थ दो है। आप अलग है आराध्य अलग है तब तक युग धर्म रहंगे। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के उत्तरकांड में इसकी चर्चा की है। जब तामसी गुण काम करते है, रजोगुण अल्प मात्रा में है, चारो ओर वैर-विरोध है, ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। वह भजन नहीं कर पाता, किन्तु साधन प्रारंभ होने पर युग परिवर्तन हो जाता है। रजोगुण बढने लगता है, तमोगुण क्षीण हो चलता है कुछ सत्त्वगुण भी स्वभाव में आ जाते है। हर्ष और भय की दुविधा लगी रहती है तो वह ही साधक द्वापर की अवस्था में आ जाता है। क्रमश: सत्त्वगुण का बाहुल्य होने पर रजोगुण स्वल्प रह जाता है, आराधना कर्म में रिती हो जाती है, ऐसे त्रेतायुग में त्याग की स्थिति वाला साधक अनेको यज्ञ करता है “यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि” यज्ञ-श्रेणीवाला जप, जिसका उतार चड़ाव श्वास-प्रश्वास पर है, उसे करने की क्षमता रहती है। जब मात्र सत्त्वगुण शेष रहा, विषमता खो गयी, समता आ गयी, यह कृतयुग अथार्त कृतार्थ युग अथवा सत्ययुग का प्रभाव है। उस समय सव योगी विज्ञानी होते है, ईश्वर से मिलने वाले होते है, स्वाभाविक ध्यान पकड़ने की उनमें क्षमता रहती है।
विवेकीजन युगधर्मो का उतार-चढ़ाव मन में समझते है। मन के निरोध के लिये अधर्म का परित्याग कर धर्म में प्रवृत्त हो जाते है। निरुद्ध मन का भी विलय हो जाने पर युगों के साथ – साथ कल्प का भी अन्त हो जाता है। पूर्णता में प्रवेश दिलाकर कल्प भी शांत हो जाता है। यही ही प्रलय है, जब प्रकर्ति पुरुष में विलीन हो जाती है। इसके पश्चात महापुरुष की जो रहनी है वही उसकी प्रकर्ति है, उसका स्वभाव है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते है – अर्जुन! मूढ़लोग मुझे नहीं जानते। मुझ ईश्वरों के ईश्वर को भी तुच्छ समझते है, साधारण मनुष्य मानते है। प्रत्येक महापुरुष के साथ यह विडम्बना रही है कि तत्कालीन समाज ने उनकी उपेक्षा की, उनका डटकर विरोध हुआ। श्रीकृष्ण भी इसके अपवाद नहीं थे। वे कहते है – मैं परमभाव में स्थित हूँ किन्तु शरीर मेरा भी मनुष्य का ही है, अत: मूढ़ पुरुष मुझे तुच्छ कहकर, मनुष्य कहकर संवोधित करते है ऐसे लोग व्यर्थ आशा वाले है, व्यर्थ कर्मवाले है, व्यर्थ ज्ञानवाले है कि कुछ भी करे और कह दे कि हम तो कामना नहीं करते, तो हो गये निष्कर्म कर्मयोगी। वे आसुरी स्वभाव वाले मुझे नहीं परख पाते , किन्तु देवी सम्पद को प्राप्त जन अनन्य भाव से मेरा ध्यान करते है मेरे गुणों का निरंतर चिन्तन करते है।
अनन्य उपासना अथार्त यज्ञार्थ कर्म के दो ही मार्ग है। पहला है ज्ञानमार्ग अथार्त अपने भरोसे, अपनी शक्ति को समझकर उसी नियत कर्म में प्रवर्त होना और दूसरी विधि स्वामी सेवक भावना की है, जिसमें सद्गुरु के प्रति समर्पित होकर वही कर्म किया जाता है। इन्ही दो दृष्टियों से लोग मुझे उपासते है किन्तु उनके द्वारा जो पार लगता है वह यज्ञ, वह हवन, वह कर्ता, श्रध्दा और औषधि– जिसमें भवरोग की चिकित्सा होती है, मैं ही हूँ। अन्त में जो गति प्राप्त होती है, वह गति भी मैं ही हूँ।
इसी यज्ञ को लोग त्रैविद्या: प्रार्थना, यजन और समत्व दिलानेवाली विधियों से सम्पादित करते है, किन्तु बदले मै स्वर्ग की कामना करते है तो मैं स्वर्ग भी देता हूँ। उसके प्रभाव से वे इन्द्रपद प्राप्त कर लेते है, दीर्घकाल तक उसे भोगते है, किन्तु पुण्य क्षीण होने पर वे पुनर्जन्म को प्राप्त होते है। उनकी क्रिया सही थी किन्तु भोगो की कामना रहने पर पुनर्जन्म पाते है। अत: भोगो की कामना नहीं करनी चाहिये। जो अनन्य भाव से अथार्त मेरे सिवाय दूसरा है ही नहीं – ऐसे भाव से जो निरन्तर मेरा चिंतन करते है, लेशमात्र भी त्रुटि न रह जाय – ऐसे जो भजते है, उनके योग की सुरक्षा का भार मैं अपने हाथ में ले लेता हूँ।
इतना होने पर भी कुछ लोग अन्य देवताओं की पूजा करते है। वे भी मेरी ही पूजा करते है, किन्तु वो मेरी प्राप्ति की बिधि नहीं है वे सम्पूर्ण यज्ञो के भावो के रूप में मुझे नहीं जानते अथार्त उनकी पूजा के परिणाम में मैं नहीं मिलता, इसलिये उनका पतन हो जाता है। वे देवता, भूत अथवा पितरो के कल्पित रूप में निवास करते है, जवकि मेरा भक्त साक्षात् मुझमें निवास करता है, मेरा ही स्वरूप हो जाता है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस यज्ञार्थ कर्म को अत्यन्त सुगम बताया कि कोई फल फूल या जो भी श्रद्धा से देता है, उसे मे स्वीकार करता हूँ। अत: अर्जुन तू जो कुछ आराधना करता है, मुझ में समर्पित कर। जब सर्वस्व का न्यास हो जायेगा, तब योग से युक्त हुआ तू तो कर्मो के बंधन से मुक्त हो जायेगा और वह मुक्ति मेरा ही स्वरूप है।
दुनिया में सब प्राणी मेरे ही है। किसी भी प्राणी से न मुझे प्रेम है न द्वेष, मैं तटस्थ हूँ, किन्तु जो मेरा अनन्य भक्त है, मैं उसमें हूँ और वह मुझमें है। अत्यंत दुराचारी जघन्यतम पापी ही कोई क्यों न हो, फिर भी अनन्य श्रद्धाभक्ति से मुझे भजता है तो वह साधु मानने योग्य है उसका निश्चय स्थिर है तो वह शीघ्र ही परम से सयुक्त हो जाता है और सदा रहने वाली परमशान्ति को प्राप्त होता है यहाँ श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि र्धािमक कोन है सृष्टि में जन्म लेनेवाला कोई भी प्राणी अनन्य भाव से एक परमात्मा को भजता है, उसका चिन्तन करता है तो वह शीघ्र ही धार्मिक हो जाता है। अत: धार्मिक वह है जो एक परमात्मा का सुमिरन करता है अन्त में आश्वासन देते है – अर्जुन! मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। कोई शुद्र हो, नीच हो आदिवासी हो या अनादिवासी या कुछ भी नामधारी हो, पुरुष अथवा स्त्री हो अथवा पापयोनि, तिर्यक् योनिवाला भी जो हो, मेरी शरण होकर परमश्रेय को प्राप्त होता है इसलिए अर्जुन! सुखरहित, क्षणभंगुर किन्तु दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर मेरा भजन कर। फिर तो जो ब्रह्म में प्रवेश दिलाने वाली अर्हताओं से युक्त है, उस ब्राह्मण तथा जो राजर्षित्व के स्तर भजने वाला है, ऐसे योगी के लिए कहना ही क्या है? वह तो पार ही है। अत: अर्जुन निरन्तर मुझमें मनवाला हो, निरन्तर नमस्कार कर। इस प्रकार मेरी शरण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा, जहाँ से पीछे लौटकर नहीं आना पड़ता।
प्रस्तुत अध्याय में उस विधा पर प्रकाश डाला गया, जिसे श्रीकृष्ण स्वयं जाग्रत करते है। यह राजविधा है, जो एक बार जागृत होने पर निश्चित कल्याण करती है। अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “राजविद्या-जागृति” नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण होता है।