भागवत गीता भाग ६ सारांश / निष्कर्ष :- अभ्यासयोग
इस अध्याय के आरम्भ मे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि फल के आश्रय से रहित होकर जो “कार्यम् कर्म” अर्थात् करने योग्य प्रक्रिया-विशेष का आचरण करता है। वही सन्याशी है और उसी कर्म को करने वाला ही योगी है। केवल क्रियाओं अथवा अग्नि को त्यागनेवाला योगी अथवा सन्यासी नहीं होता। संकल्पों का त्याग किये बिना कोई भी पुरुष सन्याशी अथवा योगी नहीं होता। हम संकल्प नहीं करते – ऐसा कह देने मात्र से संकल्प पिंड नहीं छोड़ते। योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले पुरुष को चाहिए कि ‘कार्यम् कर्म’। कर्म करते – करते योगआरूढ़ हो जाने पर ही सर्वसंकल्पों का अभाव होता है, इससे पूर्व नहीं। सर्वसंकल्पों का अभाव ही सन्यास है।
योगेश्वर ने पुनः बताया की आत्मा अधोगति में जाता है। और उसका उद्धार भी होता है जिस पुरुष द्वारा मनसहित इन्द्रिया जीत ली गई है उसका आत्मा उसके लिए मित्र बनकर मित्रता में बरतता है तथा परमकल्याण करने वाला होता है। जिसके द्वारा ये नहीं जीती गयी, उसके लिए उसी का आत्मा शत्रु बनकर शत्रुता में बरतता है, यातनाओं का कारण बनाता है। अत: मनुष्य को चाहिये की अपने आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे, अपने द्वारा अपनी आत्मा का उद्धार करे।
उन्होंने प्राप्ति वाले योगी की रहनी बतायी। “यज्ञस्थली”, बैठने का आसन तथा बैठने के तरीके पर उन्होंने कहा की स्थान एकांत हो और स्वच्छ हो। वस्त्र, मृगचर्म अथवा कुश की चटाई में से कोई एक आसन हो। कर्म के अनुरूप चेष्टा, युक्ताहार-विहार, सोने – जागने के संयम पर उन्होंने बल दिया। योगी के निरुद्ध चित्त का भी विलय हो जाता है, उस समय वह योग की पराकाष्ठा अनन्त आनंद को प्राप्त होता है। संसार के संयोग वियोग से रहित अनन्त सुख का नाम योग है। योग का अर्थ है उससे मिलन।
जो योगी इसमें प्रवेश पा जाता है, वह सम्पूर्ण भूतो में समदृष्टिवाला हो जाता है। जैसे अपनी आत्मा वैसे ही सबकी आत्मा को देकता है। वह परम पराकाष्ठा की शान्ति को प्राप्त होता है। अत: योग आवश्यक है, मन जहा जहा जाये वहां – वहां घसीटकर बारम्बार इसका निरोध करना चहिये। श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया की मन बड़ी कठिनाई से वश मे होने वाला है, लेकिन होता है। यह अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में हो जाता है। शिथिल प्रयत्नवाला व्यक्ति भी अनेक जन्म के अभ्यास से वही पहुचं जाता है।
जिसका नाम परमगति अथवा परमधाम है तपस्वियों, ज्ञानर्मािगयों तथा केवल र्किमयों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये अर्जुन! तू योगी बन। समर्पण के साथ अन्तर्मन से योग का आचरण कर। प्रस्तुत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने प्रमुख रूप से योग की प्राप्ति के लिये अभ्यास पर बल दिया। अत:
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “अभ्यासयोग” नामक छठाँ अध्याय पूर्ण होता है।
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