भागवत गीता भाग ४ सारांश / निष्कर्ष :- यज्ञकर्म स्पष्टीकरण
इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि इस योग को आरम्भ में मैने सूर्य के प्राप्ति कहा, सूर्य ने मनु से और मनु ने इक्ष्वाकु के प्रति कहा और उन से राजर्षियों ने जाना। मैंने अथवा अव्यक्त स्थितिवाले ने कहा। महापुरुष भी अव्यक्त स्वरूपवाला ही है। शरीर तो उसके रहने का मकान मात्र है। ऐसे महापुरुष की वाणी में परमात्मा ही पर्वह्वित होता है। ऐसे किसी महापुरुष से योग सूर्य द्वारा संचारित होता है। उस परम प्रकाश रूप का प्रसार सूरा के अन्तराल में होता है इसलिये सूर्य के प्रति कहा है। श्वास में संचारित होकर वे संस्काररूप में आ गये। सूरा में संचित रहने पर, समय आने पर वही मन में संकल्प बनकर आ जाता है। उसकी महत्ता समझने पर मन में उस वाक्य के प्रति इच्छा जाग्रत होती है और योग कार्य रूप ले लेता है। क्रमश: उत्थान करते करते यह योग ऋद्धियों-सिद्धियों की राजर्षित्व श्रेणी तक पहुचने पर नष्ट होने की स्थिति में पहुच जाता है, किन्तु जो प्रिय भक्त है, अनन्य सखा है उसे महापुरुष ही सभाल लेते है।
अर्जुन के प्रश्न करने पर कि आप का जन्म तो अब हुआ है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया अव्यक्त, अविनाशी, अजन्मा और सम्पूर्ण भूतो में प्रवाहित होने पर भी आत्ममाया, योग-प्रक्रिया द्वारा अपनी त्रिगुणमयी प्रकति को वश में करके मैं प्रकट होता हूँ। प्रकट हो के करते क्या है? साध्य वस्तुओ को परित्राण देने तथा जिनसे दूषित उत्पन्न होते है। उनका विनाश करने के लिये, परमधर्म परमात्मा को स्थिर करने के लिये मैं आरम्भ से पूर्तिपर्यन्त पैदा होता है। मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य है। उसे केवल तत्वदर्शी ही जान पाते है। भगवान का आविर्भाव तो कलियुग की अवस्था से ही हो जाता है, यदि सच्ची लगन हो, किन्तु आरंभिक साधक समझ ही नहीं पाता कि भगवान बोल रहे है या योही संकेत मिल रहे है। आकाश से कोन बोलता है? महाराज जी बताते थे कि जब भगवान कृपा करते है, आत्मा से रथी हो जाते है तो खम्बे से, वृक्ष से, पत्ते से, शून्य से हर स्थना से बोलते और सँभालते है। उत्थान होते – होते जब परमतत्व परमात्मा विदित हो जाये, तभी स्पर्श के साथ ही वह स्पष्ट समझ पाता है। इसलिये अर्जुन! मेरे उस स्वरुप को तत्त्वदर्शियों ने देखा और मुझे जानकर वे तत्क्षण मुझमें ही प्रविष्ट हो जाते है, जहा से पुन: आवागमन में नहीं आते।
इस प्रकार उन्होंने भगवान के आविर्भाव की विधि को बताया कि वह किसी अनुरागी के ह्रदय में होता है, बाहर कदापि नहीं। श्रीकृष्ण ने बताया मुझे कर्म नहीं बाँधते और इस स्तर से जो जानता है, उसे भी कर्म नहीं बाँधते। यही समझकर मुमुक्षु पुरुषो ने कर्म का आरम्भ किया था कि उस स्तर से जानने वाला वह पुरुष, और जान लेने पर वैसा ही वह मुमुक्षु अर्जुन। यह उपलब्धि निश्चित है, यदि यज्ञ किया जाय। यज्ञ का स्वरूप बताया। यज्ञ का परिणाम परमतत्व परमशांति बताया। इस ज्ञान को पाया कहा जाये? इस पर किसी तत्वदर्शी के पास जाने और उन्ही विधियों से पेश आने को कहा, जिससे में महापुरुष अनुकुल हो जायं।
योगेश्वर ने स्पष्ट किया वह ज्ञान तू आचरण करके पायेगा, दुसरे के आचरण से तुझे नहीं मिलेगा। वह भी योग की सिद्धि के काल में प्राप्त होगा, प्रारम्भ में नहीं। वह ज्ञान (साक्षात्कार) हृदय-देश मैं होगा, बाहर नहीं। श्रद्धालु, तत्पर, संयतेन्द्रिय एवं संशयरहित पुरष से ही प्राप्त करता है। अत: ह्रदय में स्थित अपने संशय को वैराग्य की तलवार से काट। यह ह्रदय देश की लडाई है। बाह्य युद्ध से गीतोक्त युद्ध का कोई पर्योजन नहीं है।
इस अध्याय योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मुख्य रूप से यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट किया। और बताया की यज्ञ जिससे पूरा होता है, उसे करने (कार्य-प्रणाली) का नाम कर्म है। कर्म को भली प्रकार इसी अध्याय में स्पष्ट किया। अत:
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “यज्ञकर्म स्पष्टीकरण” नामक चौथा अध्याय पूर्ण होता है।