Shri Krishna Govind Hare Murari He Nath Narayan Vasudeva

0
52
Shri Krishna Govind Hare Murari He Nath Narayan Vasudeva
Shri Krishna Govind Hare Murari He Nath Narayan Vasudeva

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय!

– श्री = निधि
– कृष्ण = आकर्षण तत्व
– गोविन्द = इन्द्रियों को वशीभुत करना गो-इन्द्रि, विन्द बन्द करना, वशीभूत
– हरे = दुःखों का हरण करने वाले
– मुरारे = समस्त बुराईयाँ- मुर (दैत्य)
– हे नाथ = मैं सेवक आप स्वामी
– नारायण = मैं जीव आप ईश्वर
– वासु = प्राण
– देवाय = रक्षक

“अर्थात : “हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो, इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूं आप ब्रह्म, प्रभो ! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं। एक व्यक्ति मंदिर जा रहा था अपने 5 साल के पुत्र के साथ आरती का समय हो गया था उस व्यक्ति ने देखा कि मैं जब आरती गा रहा हूँ तो मेरा पुत्र भी कुछ गुनगुना रहा है। बाहर आकर उसने पुत्र से पूछा कि तुम्हें तो आरती आती नहीं, तुम क्या गा रहे थे? पुत्र ने बहुत सुंदर जवाब दिया “मैने तो क ख ग घ पूरा सुना दिया भगवान जी को और कहा कि इन शब्दों से अपने आप प्रार्थना बना लो

दुनिया दिखावा देखती है नीयत नहीं
भगवान नीयत देखते हैं दिखावा नहीं

उत्तमसंस्कार

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।

जो लोग अच्छे आचरण वाले होते हैं उन पर बुरी संगति का भी कोई असर नहीं पड़ता। बुरी संगत का असर उन पर ही होता है जिनके संस्कार कमजोर होते हैं। जैसे चंदन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं लेकिन चंदन पर सांप के जहर का कोई असर नहीं होता। ऐसे ही संसार में अच्छे जीवन के लिए अच्छे आचरण और उच्च संस्कारों की आवश्यकता होता है। बजाय दूसरों को दोष देने के अगर हम खुद के संस्कारों और आचरण पर ध्यान देंगे तो ज्यादा सफल होंगे, फिर हम कितने ही बुरे लोगों के बीच रहते हों हम पर उनके कुसंस्कारों का कोई असर नहीं होगा।

मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केंद्र एक स्थान है। और परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, परंतु जिसका केंद्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है, सब आँखों द्वारा देखता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा सांस लेता है, सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और मस्तिष्क द्वारा विचार करता है। यदि मनुष्य अपनी आत्मचेतना को अनंतगुनी कर ले, तो वह ईश्वर बन सकता है और सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। मनुष्य तभी मनुष्य कहा जा सकता है, जबतक वह प्रकृति से ऊपर उठने की कोशिश करता है।

जिस प्रकार एक जलस्रोत स्वाधीन भाव से बढ़ते- बढ़ते किसी गड्ढे में गिरकर एक भंवर का रूप धारण कर लेता है और उस भंवर में कुछ देर चक्कर काटने के बाद पुनः एक उन्मुक्त स्रोत के रूप में बाहर आकर अनिर्बन्ध रूप से वह निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन भी है. इसलिए पहले मनुष्य बनो, तब तुम देखोगे कि वे बाकी सब चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी। परस्पर घृणित द्वेषभाव को छोडो और स उद्देश्य , सदुपाय, सत्साहस एवम् सद्वीर्य का अवलंबन करो। तुमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है, तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाओ। मनुष्य बनो।

स्वामी विवेकानन्द
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here