सत्यभामा द्वारा कृष्ण दान के उपरांत की कथा
जब सत्यभामा ने श्री कृष्ण को दान कर दिया, तो नारद जी कृष्ण को साथ लेकर चल दिये।
भगवन् ! आप इनका उचित मूल्य ले लें -सत्यभामा ने प्रार्थना की।
कोई भी वस्तु लेकर मैं क्या करूँगा? नारद परिग्रही नहीं है।श्री कृष्ण ! आओ चलें।
सत्यभामा मूर्च्छित होने लगीं ।रानियों ने देवर्षि के चरण पकड़े। महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी, माता देवकी तथा पूरा यदुवंश वहाँ एकत्र हो गया।
अंत में रुक्मिणी ने कहा –‘दया करें प्रभु’।
दया तो आप कर रही हैं। अच्छा, आप चाहें तो मैं इन निखिल ब्रह्माण्डनायक का उचित मूल्य लेने के लिए तैयार हूँ।
‘मैं दूँगी मूल्य ‘—सत्यभामा ने कहा।
‘निखिल ब्रह्माण्डनायक ‘रुक्मिणी के होंठ काँपे।इनका मूल्य कौन दे सकता है?
‘उचित मूल्य देवि’ नारद जी हँसे। ‘इन्हें तुला में बैठा दीजिए। ‘आप दूसरी ओर ताम्र, लौह, पाषाण भी रखें तो मुझे आपत्ति नहीं है।
तत्काल तुला स्थापित की गयी। रत्न, स्वर्ण, रजत यहाँ तक कि ताम्र तक पर यदुवंशी उतर आये। सम्पूर्ण राजकीय कोष, महाराज उग्रसेन तथा सम्राट युधिष्ठिर का मुकुट तक तुला पर रख दिये। पर तुला किंचित् हिली तक नहीं। एक ओर पितामह भीष्म और दूसरी ओर द्रौपदी। दोनों के नेत्र झर रहे थे। माता देवकी ने रुक्मिणी की ओर देखा।
रुक्मिणी ने कहा –मैं अपने पूरे बैभव के साथ बैठ जाऊँ –पर निखिल ब्रह्माण्ड का बैभव अपने नायक की समता नहीं कर सकता।
‘तुम’ माता ने हलधर की ओर देखा।
‘यह ठीक है कि कृष्ण मेरे अनुज हैं । ‘लेकिन तुला में उनका समत्व करने का साहस मुझमें नहीं है।
‘बेटी ! ऐसे अवसर पर सम्मान रखने से काम नहीं चलेगा। ‘व्रजराज के शिविर में जाओ।श्याम प्रेम में बिकता है और वहाँ प्रत्येक इसका धनी है। किसी को भी ले आओ वहाँ से ।माता देवकी ने कहा।
सत्यभामा जी तो इस समय विह्वल हो रहीं थीं। वे रथ में बैठीं और रथ व्रजराज के शिविर के सम्मुख रुका। उन्होंने यह भी नहीं देखा कि उन्हें कौन कैसे देख रहा है। रथ से उतर कर दौड़ीं वे और सीधे श्री वृषभानुजी के शिविर में कीर्ति कुमारी के चरणों में सिर रख दिया उन्होंने —‘वहन ! शीघ्र चलो! इस विपत्ति से मुझे बचा लो।
जय जय श्री राम
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः