मयूरेश्वर विनायक
मयूरेश्वर या ‘मोरेश्वर’ भगवान गणेश के ‘अष्टविनायक’ मंदिरों में से एक है। यह मंदिर महाराष्ट्र राज्य के मोरगाँव में करहा नदी के किनारे अवस्थित है जो पुणे जिले के अंतर्गत आता है। मोरगाँव का नाम मोर के नाम पर पड़ा क्योंकि एक समय ऐसा था जब यह गाँव मोरों से भरा हुआ था।
मोरगाँव, पुणे में बारामती तालुका में स्थित है। यह क्षेत्र भूस्वानंद के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ होता है- “सुख समृद्ध भूमि”। इस क्षेत्र का ‘मोर’ नाम इसीलिए पड़ा, क्योंकि यह मोर के समान आकार लिए हुए है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में बीते काल में बडी संख्या में मोर पाए जाते थे। इस कारण भी इस क्षेत्र का नाम मोरगाँव प्रसिद्ध हुआ।
यह मंदिर पुणे से 80 किलोमीटर दूर स्थित है। मोरेगांव गणेशजी की पूजा का महत्वपूर्ण केंद्र है। मयूरेश्वर मंदिर के चारों कोनों में मीनारें हैं और लंबे पत्थरों की दीवारें हैं। यहां चार द्वार हैं। ये चारों दरवाजे चारों युग, सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के प्रतीक हैं। इस मंदिर के द्वार पर शिवजी के वाहन नंदी बैल की मूर्ति स्थापित है, इसका मुंह भगवान गणेश की मूर्ति की ओर है।
नंदी की मूर्ति के संबंध में यहां प्रचलित मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में शिवजी और नंदी इस मंदिर क्षेत्र में विश्राम के लिए रुके थे, लेकिन बाद में नंदी ने यहां से जाने के लिए मना कर दिया। तभी से नंदी यहीं स्थित है। नंदी और मूषक, दोनों ही मंदिर के रक्षक के रूप में तैनात हैं।
मंदिर में गणेशजी बैठी मुद्रा में विराजमान है तथा उनकी सूंड बाएं हाथ की ओर है तथा उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। मयूरेश्वर की मूर्ति यद्यपि आरम्भ में आकार में छोटी थी, परंतु दशक दर दशक इस पर सिन्दूर लगाने के कारण यह आजकल बड़ी दिखती है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने इस मूर्ति को दो बार पवित्र किया है जिसने यह अविनाशी हो गई है।
मान्यता
मयूरेश्वर की मूर्ति यद्यपि आरम्भ में आकार में छोटी थी, परंतु दशक दर दशक इस पर सिन्दूर लगाये जाते रहने के कारण यह आजकल बड़ी दिखती है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने इस मूर्ति को दो बार पवित्र किया है, जिससे यह अविनाशी हो गई है।
एक किंवदंती यह भी है कि ब्रह्मा ने सभी युगों में भगवान गणपति के अवतार की भविष्यवाणी की थी, मयूरेश्वर त्रेतायुग में उनका अवतार थे। गणपति के इन सभी अवतारों ने उन्हें उस विशेष युग के राक्षसों को मारते हुए देखा। कहा जाता है कि गणपति को मयूरेश्वर इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने ‘मोरेश्वर’ में रहने का निश्चय किया और मोर की सवारी की।
अन्य प्रसंग
एक अन्य कथानुसार देवताओं को दैत्यराज सिंधु के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने हेतु गणेश ने मयूरेश्वर का अवतार लिया था। गणपति ने माता पार्वती से कहा कि “माता मैं विनायक दैत्यराज सिंधु का वध करूँगा। तब भोलेनाथ ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि कार्य निर्विघ्न पूरा होगा। तब मोर पर बैठकर गणपति ने दैत्य सिंधु की नाभि पर वार किया तथा उसका अंत कर देवताओं को विजय दिलवाई।
इसलिए उन्हें ‘मयूरेश्वर’ की पदवी प्राप्त हुई। मयूरेश्वर को ‘मोरेश्वर’ भी कहते हैं। मान्यताओं के अनुसार मयूरेश्वर के मंदिर में भगवान गणेश द्वारा सिंधुरासुर नामक एक राक्षस का वध किया गया था। गणेशजी ने मोर पर सवार होकर सिंधुरासुर से युद्ध किया था। इसी कारण यहां स्थित गणेशजी को मयूरेश्वर कहा जाता है।
जय गणपति बप्पा
जय अष्टविनायक
जय मयूरेश्वर
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः