श्री शाकम्भरी माता
शाकम्भरी देवी दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका,भीमा, भ्रामरी, शताक्षी तथा शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। देश भर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
माता शाकम्भरी की कथा
पुराणिक कथा के अनुसार शाकुम्भरा देवी ने 100 वर्षो तक तप किया था और महिने के अंत में एक बार शाकाहारी भोजन कर तप किया था । ऐसी निर्जीव जगह जहाँ पर सौ वर्ष तक पानी भी नहीं था। वहाँ पर पेड़ और पौधे उत्पन्न हो गये। यहाँ पर साधु-सन्त माता का चमत्कार देखने के लिये आये। और उन्हें शाकहारी भोजन दिया गया इसका तात्पर्य यह था कि माता केवल शाकहारी भोजन का भोग ग्रहण करती है और इस घटना के बाद से माता का नाम शाकम्भरी माता पड़ा। पुराणिक कथा के अनुसार यहाँ पर शंकराचार्य आये और तपस्या की थी। शाकम्भरी देवी तीन देवी ब्रह्मीदेवी, भीमादेवी और शीतलादेवी का शक्तिरूप है।
1 – पहला प्रमुख श्री शाकम्भरी माता मन्दिर, गाँव सकराय सीकर (राजस्थान)
सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महाभारत काल में पांडव अपने भाइयों व परिजनों का युद्ध में वध (गोत्र हत्या) के पाप से मुक्ति पाने के लिए अरावली की पहाडिय़ों में रुके। युधिष्ठिर ने पूजा अर्चना के लिए देवी मां शर्करा की स्थापना की थी। वही अब शाकंभरी तीर्थ है। श्री शाकम्भरी माता गाँव सकराय यह आस्था केन्द्र सुरम्य घाटियों के बीच बना शेखावटी प्रदेश के सीकर जिले में यह मंदिर स्थित है।
यह मंदिर सीकर से 56 किमी. दूर अरावली की हरी वादीयों में बसा है। झुंझनूँ जिले के उदयपुरवाटी के समीप है। यह मंदिर उदयपुरवाटी गाँव से 16 किमी. पर है। यहाँ के आम्रकुंज, स्वच्छ जल का झरना आने वाले व्यक्ति का मन मोहित करते हैं। इस शक्तिपीठ पर आरंभ से ही नाथ संप्रदाय वर्चस्व रहा है जो आज तक भी है। यहाँ देवी शंकरा, गणपति तथा धन स्वामी कुबेर की प्राचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं।
यह मंदिर खंडेलवाल वैश्यों की कुल देवी के मंदिर के रूप में विख्यात है। इसमें लगे शिलालेख के अनुसार मंदिर के मंडप आदि बनाने में धूसर और धर्कट के खंडेलवाल वैश्यों सामूहिक रूप से धन इकट्ठा किया था। विक्रम संवत 749 के एक शिलालेख प्रथम छंद में गणपति, द्वितीय छंद में नृत्यरत चंद्रिका एवं तृतीय छंद में धनदाता कुबेर की भावपूर्ण स्तुति लिखी गई है।
इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में किया गया था। भारत के आठशक्ति पीठों में से यह एक है। यह भव्य मंदिर विभिन्न प्रकार के वृक्षों से घिरा है तथा कई प्रकार के औषधि वृक्ष भी इस शांत मालकेतु घाटी (अरावली पर्वत) में पाये जाते हैं। शंकर गंगा नदी बारिश के दिनों में इस मंदिर के पास से बहती है। भक्तों को पवित्र स्नान करने हेतु कई घाट बनवाये गये हैं। इस मंदिर के आसपास अन्य महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में जटा शंकर मंदिर तथा श्री आत्म मुनि आश्रम शामिल है। भक्तगण सालभर इस मंदिर में आते रहते हैं, लेकिन हिंदु कॅलेंड़र के अनुसार महिने के आठवे, नौवें तथा दसवें दिन देवी भगवती की विशेष प्रार्थना के होते हैं। नवरात्रों के दौरान नौ दिन का उत्सव यहाँ होता है।
2 – दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है
जिले के सांभर कस्बे में अवस्थित
शाकम्भरी देवी अशाकम्भरी देवी का प्राचीन शक्तिपीठ जयपुर जिले के सांभर कस्बे में अवस्थित है। शाकम्भरी माता सांभर की अधिष्ठात्रीदेवी है और इस शक्तिपीठ से ही इस कस्बे ने अपना यह नाम पाया। सांभर पर चौहान राजवंश का शताब्दियों तक असधिपत्य रहा। 12वि शती के अन्तिम चरण में सांभर के प्रदेश में चौहानों का राज्य था। यहाँ सांभर झील शाकंभरी देवी के नाम पर प्रसिद्ध है। महाकाव्य महाभारत के अनुसार यह क्षेत्र असुर राज वृषपर्व के साम्राज्य का एक भाग था और यहाँ पर असुरों के कुलगुरु शुक्राचार्य निवास करते थे। इसी स्थान पर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का विवाह नरेश ययाति के साथ सम्पन्न हुआ था। देवयानी को समर्पित एक मंदिर झील के पास स्थित है। यहाँ शाकम्भरी देवी को समर्पित एक मंदिर भी उपस्थित है।
एक अन्य हिंदू मान्यता के अनुसार, शाकम्भरी देवी जो कि चौहान राजपूतों की रक्षक देवी हैं, सांभर प्रदेश के लोग इस वन संपदा को लेकर होने वाले संभावित झगड़ों के लेकर चिंतित हो गये थे। देवी ने यहां स्थित इस वन को बहुमूल्य धातुओं के एक मैदान में परिवर्तित कर दिया था। और इसे एक वरदान के स्थान पर श्राप समझने लगे। लोगों ने देवी से अपना वरदान वापस लेने की प्रार्थना की तो देवी ने सारी चांदी को नमक में परिवर्तित कर दिया।
सांभर, पौराणिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक और धार्मिक महत्तव का एक सांस्कृतिक पहचान रही है शाकम्भरी देवी के मंदिर की अतिक्ति पौराणिक राजा ययाति की दोनों रानियों देपयानी और शर्मिष्ठा के नाम पर एक विशाल सरोवर व कुण्ड अद्यावधि वहां विद्यमान है जो इस क्षेत्र के प्रमुख तीर्थस्थलों के रूप में विख्यात है। वर्तमान में देवनानी के नाम से प्रसिद्ध इस तीर्थ का लोक में बड़ा माहात्म्य है जिसकी सूचक यह कहावत है देवदानी सब तीर्थो की नानी। चौहान काल में सांभर और उसका निकटवर्ती क्षेत्र सपादलक्ष (सवा लाख की जनसंख्या सवा लाख गांवों या सवा लाख की राजस्व वसूली क्षेत्र) कहलाता था।
ज्ञात इतिहास के अनुसार चौहान वंश शासक वासुदेव ने सातवीं शताब्दी ईं में सांभर झील और सांभर नगर की स्थापना शाकम्भरी देवी के मंदिर के पास में की। सांभर सातवीं शताब्दी ई. तक अर्थात् वासुदेवी के राज्यकरल से १११५ ई. उसके वंशज अजयराज द्वारा अजयमेरू दुर्ग या अजमेर की स्थापना कर अधिक सुरक्षित समझकर वहां राजधानी स्थानांतरित करने तक शाकम्भरी इस यशस्वी चौहान राजवंश की राजधानी रही।
सांभर की अधिष्ठात्री और चौहान राजवंश की कुलदेवी शाकम्भरी माता का प्रसिद्ध मंदिर सांभर से लगभग 15 कि.मी. दूर अवस्थित है। सांभर के पास जिस पर्वतीय स्थान में शाकम्भरी देवी का मंदिर है वह स्थान कुछ वर्षों पहले तक जंगल की तरह था और घाटी देवी की बनी कहलाती थी। समस्त भारत में शाकम्भरी देवी का सर्वाधिक प्राचीन मंदिर यही है जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि देवी की प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी।
शाकम्भरी देवी की पीठ के रूप में सांभर की प्राचीनता महाभारत काल तक चली जाती है। महाभारत (वन पर्व), शिव पुराण (उमा संहिता) मार्कण्डेय पुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में शाकम्भरी की अवतार कथाओं में शत वार्षिकी अनावृष्टि चिन्तातुर ऋषियोंपर देवी का अनुग्रह शकादि प्रसाद दान द्वारा धरती के भरण पोषण की कथायें उल्लेखनीय है। वैष्णव पुराण में शाकम्भरी देवी के तीनों रूपों में शताक्षी, शाकम्भरी देवी का शताब्दियों से लोक में बहुत माहात्म्य है।
सांभर और उसके निकटवर्ती अंचल में तो उनकी मान्यता है ही साथ ही दूरस्थ प्रदेशों से भी लोग देवी से इच्छित मनोकमना, पूरी होने का आशीर्वाद लेने तथा सुख-समृद्धि की कामना लिए देवी के दर्शन हेतु वहां आते हैं। प्रतिवर्ष भादवा सुदी अष्टमी को शाकम्भरी माता का मेला भरता है। इस अवसर पर सैंकड़ों कह संख्या में श्रद्धालु देवी के दर्शनार्थ वहां आते हैं। चैत्र तथा आसोज के नवरात्रों में यहां विशेष चहल पहल रहती है।
3 – तीसरा मां शाकंभरी का मंदिर स्थान बेहट, सहारनपुर, उत्तरप्रदेश शिवालिक पर्वतमाला के घने जंगल में मां शाकंभरी का मंदिर स्थान बेहट, सहारनपुर, उत्तरप्रदेश
उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस सिद्धपीठ में बने माता के पावन भवन में माता शाकंभरी देवी, भीमा देवी, भ्रामरी देवी व शताक्षी देवी की नौ देवियों में से, एक हैं मां शाकंभरी देवी। कल कल छल छल बहती नदी की जल धारा ऊंचे पहाड़ और जंगलों के बीच विराजती हैं माता शाकंभरी। कहा जाता है शाकंभरी देवी लोगों को धन धान्य का आशीर्वाद देती हैं। इनकी अराधना करने वालों का घर हमेशा शाक यानी अन्न के भंडार से भरा रहता है।
बेहट शाकंभरी देवी का इतिहास
कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर
शाकंभरी देवी के मंदिर में माता शाकंभरी के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी और बाईं और शीताक्षी देवी प्रतितिष्ठितहै। भारत की शिवालिक पर्वत श्रेणी में माता श्री शाकंभरी देवी का प्रख्यात तीर्थस्थल है। दुर्गा पुराण में वर्णित 51 शक्तिपीठों में से एक शाकंभरी सिद्धपीठ जिले के शिवालिक वन प्रभाग के आरक्षित वन क्षेत्र में स्थित है। यहां की पहाड़ियों पर पंच महादेव व भगवान विष्णु के प्राचीन मंदिर भी स्थित हैं।
इस पावन तीर्थ के आसपास गौतम ऋषि की गुफा, बाण गंगा व प्रेतसीला आदि पवित्र स्थल स्थापित हैं। यहां वर्ष में तीन मेले लगते हैं, जिसमें शारदीय नवरात्र मेला अहम है। शिवालिक घाटी में माता शाकंभरी आदि शक्ति के रूप में विराजमान हैं। गर्भगृह में माता शाकंभरी, भीमा, भ्रांबरी व शताक्षी देवियों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मान्यता है कि सिद्धपीठ पर शीश नवाने वाले भक्त सर्व सुख संपन्न हो जाते हैं। यह भी मान्यता है कि मां भगवती सूक्ष्म शरीर में इसी स्थान पर वास करती हैं। जब भक्तगण श्रद्धा पूर्व मां की आराधना करते हैं तो करुणामयी मां शाकंभरी स्थूल शरीर में प्रकट होकर भक्तों के कष्ट हरती हैं।
भूरादेव मंदिर
देवताओं ने माता से वेदों की प्राप्ति की, ताकि सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चल सके। अंबे भवानी की जय-जयकार सुनकर मां का एक परम भक्त भूरादेव भी अपने पांच साथियों चंगल, मंगल, रोड़ा, झोड़ा व मानसिंह सहित वहां आ पहुंचा। उसने भी माता की अराधना गाई। अब मां ने देवताओं से पूछा कि वे कैसे उनका कल्याण करें ! इस प्रकार मां के नेतृत्व में देवताओं ने फिर से राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। युद्ध भूमि में भूरादेव और उसके साथियों ने दानवों में खलबली मचा दी।
इस बीच दानवों के सेनापति शुम्भ निशुम्भ का भी संहार हो गया। ऐसा होने पर रक्तबीज नामक दैत्य ने मारकाट मचाते हुए भूरादेव व कई देवताओं का वध कर दिया। रक्तबीज के रक्त की जितनी बुँदे धरती पर गिरतीं उतने ही और राक्षस प्रकट हो जाते थे। तब मां ने महाकाली का रूप धर कर घोर गर्जना द्वारा युद्ध भूमि में कंपन उत्पन्न कर दिया। डर के मारे असुर भागने लगे। मां काली ने रक्तबीज को पकड़ कर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उसके रक्त को धरती पर गिरने से पूर्व ही मां ने चूस लिया। इस प्रकार रक्तबीज का अंत हो गया।
जनश्रुति यह है कि, अब शेर पर सवार होकर मां युध्द भूमि का निरीक्षण करने लगीं। तभी मां को भूरादेव का शव दिखाई दिया। मां ने संजीवनी विद्या के प्रयोग से उसे जीवित कर दिया तथा उसकी वीरता व भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि जो भी भक्त मेरे दर्शन हेतु आएंगे वे पहले भूरादेव के दर्शन करेंगे। तभी उनकी यात्रा पूर्ण मानी जाएगी। मेरे दर्शन से पूर्व जो भक्त भूरादेव के दर्शन नहीं करेगा, उसकी यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाएगी।
इस प्रकार देवताओं को अभयदान देकर मां शाकुम्भरी नाम से यहां स्थापित हो गईं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश व आसपास के कई प्रदेशों के निवासियों में माता को कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। परिवार के हर शुभ कार्य के समय यहां आकर माता का आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग धन धान्य व अन्य चढ़ावे लेकर यहां मनौतियां मांगने आते हैं। उनका अटूट विश्वास है कि माता उनके परिवार को भरपूर प्यार व खुशहाली प्रदान करेंगी।
हर मास की अष्टमी व चौदस को श्रद्धालु यहां आते हैं। स्थान-स्थान पर भोजन बनाकर माता के भंडारे लगाए जाते हैं। माता के मंदिर के इर्द-गिर्द कई अन्य मंदिर भी हैं। मुख्य मंदिर से एक किमी पहले भूरादेव मंदिर है, जहां श्रद्धालु प्रथम पूजा करते हैं। मुख्य मंदिर के निकट वीर खेत के नाम से प्रसिद्ध मैदान है। इसके बारे में मान्यता है कि माता शक्ति ने यहां महासुर दुर्गम सहित कई दैत्यों का वध किया था, तभी मां जगद्जननी दुर्गा कहलाई।
सिद्धपीठ परिक्षेत्र में पहाडि़यों पर एक ओर छिन्नमस्ता देवी व कुछ फर्लाग दूर माता रक्तिदंतिका देवी के भव्य मंदिर हैं। इस पंचकोसी क्षेत्र में पांच स्वयं भू: शिवलिंग हैं, जिसके दर्शन मात्र से ही चारों धाम की यात्रा का पुण्य प्राप्त होने की मान्यता है।
इतिहास में भी रहा बेहट शाकंभरी का महत्व
सिद्धपीठ धार्मिक ही नहीं एतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। चंद्रगुप्त व चाणक्य भी सेना के गठन के लिए यहां आए थे। इस सिद्धपीठ की तमाम व्यवस्थाएं जसमोर रियासत घराना करता है। इस घराना का संबंध कलिंग राज्य से बताया जाता है। इसके अनुसार माता शाकंभरी उनकी कुलदेवी है। मंदिर की व्यवस्था पहले राणा इंद्रसिंह व उसके बाद उनके पुत्र राणा कुलवीर सिंह तथा उनके देहांत के बाद उनकी पत्नी धर्मपत्नी रानी देवलता व पुत्र कुंवर आदित्य प्रताप राणा, कुंवर सानिध्य प्रताप राणा व कुंवर आतुल्य प्रताप राणा संभाल रहे हैं।
आस्था को संजोए बेहट, शंकराचार्य आश्रम
सिद्धपीठ परिक्षेत्र में द्वारिका एवं ज्योर्ति पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज का आश्रम यहां शोभा बढ़ाता है। आश्रम में श्रद्धालुओं के ठहरने व भंडारे आदि की सुविधा के लिए करीब 150 कमरे बने हैं। आश्रम व्यवस्थापक संत संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंत भैरवतंत्राचार्य श्री सहजानंद जी ब्रह्मचारी श्रद्धालुओं की सेवा-सुश्रुषा की देखरेख करते हैं। यहां सभ्यता, संस्कृति एवं धार्मिक आस्था का संचार करता संस्कृत विद्यालय है।
कैसे पहुंचे
आप देश के किसी भी कोने से सहरानपुर रेल या बस द्वारा पहुंच सकते हैं। सहारनपुर में बेहट अड्डे से शाकंभरी देवी के लिए बसें हर थोड़ी देर पर मिलती हैं। 42 किलोमीटर का रास्ता तकरीबन डेढ घंटे का है। शाकंभरी देवी के बस स्टाप से मंदिर के लिए एक किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करना पड़ता है। मां का मंदिर शिवालिक पर्वतमाला के घने जंगल में नदी के किनारे है। मंदिर तक पहुंचने के लिए शाकंभरी नदी से होकर रास्ता जाता है।
थोड़ा रास्ता जंगल से होकर भी है। पथरीली राहों के साथ ही बरसात के दिनों में नदी में पानी भी रहता है। पहाड़ों पर तेज बारिश होने पर नदी में पानी बढ़ जाता है। तब मंदिर जाना मुश्किल है। इसलिए बरसात में दर्शन करने वालों को थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। माता शाकंभरी के मंदिर के पास प्रसाद की दुकानें और खाने पीने से स्टाल है। मंदिर पास रहने के लिए आश्रम भी है। अगर मंदिर पहुंचने में शाम हो जाए और लौटना मुश्किल हो तो वहीं रूका जा सकता है।
मंदिर के पास एक संस्कृत स्कूल और जिला प्रशासन का बनवाया गया रैन बसेरा भी है। शाम को 5.45 बजे के बाद माता शाकंभरी से वापस आने के लिए बसें नहीं मिलतीं। ऐसी हालत में आपको मंदिर के पास ही रूकना पडेगा।
प्रेम से बोलो जय माता की
बोलिए सच्चे दरबार की जय
सच्ची ज्योता वाली माता तेरी सदा ही जय
जय माता शाकम्भरी
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो ।
श्री कृष्ण शरणम ममः
Kya mangalvar or shanivar ko shakumbari devi ki Pooja hoti hai
क्या सहारनपुर शाकंभरी की अधिक जानकारी वाली कोई बुक है।हो तो प्लीज उपलब्ध करवाये।
शाकंभरी कुटुंब, महाराष्ट्र
Himachal paresh me kanha hai maa sakmbhari Devi ka bhawan
Jai Mata Di, Chauhan Ji,
Jasmour village area, at a distance of 40 km to the north of Saharanpur in Uttar Pradesh State.
Jai mata di jai shakumbhari devi maa ki