काम वो जो उपासना बढ़ाये
शुकदेव जी रासपंचाध्यायी के ४ श्लोक में कह रहे है
निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं
व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीत्मानसाः
आजग्मुर न्योन्यमलक्षितोद्यमाः
स यत्र कान्तो जवलोल कुण्डलाः
अर्थात – भगवान का वह वंशीवादन भगवान के प्रेम को उनके मिलन की लालसा को अत्यंत उकसाने वाला बढ़ाने वाला था यो तो श्याम सुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था।अब तो उनके मन कि सारी वस्तुएँ भय संकोच धैर्य मर्यादा आदि की वृतिया भी छीन ली वंशी ध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गई। जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए वे गोपियाँ भी एक दूसरे को सूचना न देकर यहाँ तक कि एक दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपा कर जहाँ वे थे वहाँ के लिए चल पड़ी।वे इतने वेग से चली थी कि उनके कानो के कुंडल झोंके खा रहे थे।
निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं – निशम्य गीतं – हर स्वर, नाद बनकर गोपियों के पास गया है। ऐसा नाद जो गोपियों को उनके घरों से खीच लाए। स्वर पैदा नहीं हुआ, स्वरुप पैदा हुआ है। और दुति वनकर वंशी गोपियों के पास जाकर बोली है। यहाँ तदनंगवर्धनं शब्द आया है अर्थात अनंग जिसका अंग ही ना हो, इसका एक अर्थ तो कामदेव से है और दूसरा अर्थ है जहाँ अंग का कोई काम नहीं। यहाँ जिस काम की चर्चा है यह वो वाला काम नही जो वासना का उदय करे, इन्द्रियों को उत्तेजित करे ,वो वाला काम जो उपासना को बढ़ाये।अध्यात्म में शरीर या देह का काम केवल उपासना के लिए साधन मात्र है इसीलिए वैष्णवो को इससे मोह नहीं होता।
इतिहास में ऐसा कई भक्तो के उदाहरण मिलते है जैसे हरिदास ठाकुर जी जिन्होंने नाम जप के लिए शरीर की परवाह ही नहीं की हजारों कोढे पड़े देह को गंगा जी के फेक दिया गया तब भी उन्होंने नाम जप नहीं छोड़ा,मीरा बाई जी विष पी गई, नित्यानंद जी जघाई मघाई की चोट सहन करने के बाद भी नृत्य करते रहे। गोपियों ने भी यही किया है वरना जो गोपी अच्छी भली घर में श्रृंगार कर रही थी वह तो वंशी सुनकर और भी अपने को श्रृंगारित करके जाती परन्तु गोपी को देह से क्या काम इसलिए अस्त व्यस्त श्रृंगार करके गई है।कुछ तो प्राकृत देह को वही छोड़कर दिव्य देह से रास में गई है। क्योकि ये तो आत्मा का परमात्मा का मिलन है।
रास में तो चीज चंद्रमा से लेकर वंशी और रात तक सभी अप्राकृत है फिर काम प्राकृत कैसे हो सकता है। इसलिए “ता तदनंगवर्धनं” अर्थात वो वाला काम नहीं। जैसे – अग्नि होती है एक वो अग्नि होती है जिसे हम भगवान का मुख समझकर आहुति देते है और जिसके अवशेष को मस्तक पर भभूती मानकर लगाते है वही अग्नि शमसान में भी होती है चिता की अग्नि पर दोनों में अंतर है एक पवित्र है हम माथे से लगाते है और दूसरी इतनी अपवित्र है कि हम स्नान करते है। स्थान का फर्क है।
जैसे – बाल है सिर पर है तो बाल कहेगे ,वही बाल भौहों में आ गए तो उन्ही बालो को हम भौहे कहने लगे,थोड़े और नीचे आये तो वही बाल पलके कहलाने लगी ।स्थान बदलने से अलग-अलग नाम हो गए, वैसे ही काम तो है पर दिव्य वाला काम है।आचरण देखते तो व्याघ के पास कहाँ था ?वंश देखते तो विदुर जी के पास कहाँ था ?अवस्था देखते तो ध्रुव के पास कहाँ थी ? पुरुषार्थ देखते तो उग्रसेन के पास कहाँ था ? धन देखते तो सुदामा के पास कहाँ था?भगवान ने देखा तो केवल मन देखा उसे ही अपनी ओर खीचा। श्यामाश्याम ।
बोलिये द्वारकाधीश महाराज की जय।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो ।
श्री कृष्ण शरणम ममः