कभी न छूटे पिण्ड दुःखों से, जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं
संसारी व्यक्ति द्वेषी होता है। जितना राग होता है, उतना द्वेष होता है। भक्त रागी होता है। भगवान में राग करता है, आरती पूजा में राग करता है, मंदिर मूर्ति में राग करता है। जिज्ञासु में होती है जिज्ञासा। ज्ञानी में कुछ नहीं होता है। ज्ञानी गुणातीत होते हैं। ज्ञानी में सब दिखेगा लेकिन ज्ञानी में कुछ होता नहीं। ज्ञानी से सब गुजर जाता है। हम चाहे किसी भी व्यक्ति से प्रार्थना करें, किन्तु कौन आकर हमें सहायता देगा? जिसने स्वयं मृत्यु से छुटकारा नहीं पाया, उससे हम किस प्रकार सहायता की आशा कर सकते हैं? स्वयं ही अपना उद्धार करो, दूसरा कोई हमारी सहायता नहीं करेगा। आत्मा का आश्रय लो, उठ खड़े हो, डरो मत।
अरे ! सब चला जाए तो भी ठीक है, सब आ जाए तो भी ठीक है। आखिर यह संसार सपना है। गुजरने दो सपने को कुछ भी होकर क्या होगा? क्या नौकरी नहीं मिलेगी? खाना नहीं मिलेगा? कोई बात नहीं अंततः तो मरना ही है। इस शरीर को ईश्वर के मार्ग पर चलते हुए अधिक से अधिक भूख प्यास से पीड़ित हो मर जायेंगे। वैसे भी खा खाकर लोग मरते ही हैं न ! वास्तव में होता तो यह है कि प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाले भक्त की रक्षा ईश्वर स्वयं करते हैं। हम जब निश्चिंत जायेंगे तो ईश्वर हमारे लिए चिन्तित होगा कि कहीं भक्त भूखा न रह जाए।
अपनी सर्वशक्तिमान प्रकृति को उद्बुद्ध करो। हमारे अंदर ही तो सारी शक्ति निहित है। एक मात्र आत्मा ही शासन करती है, जड़ पदार्थ क्या शासन करेगा। बहुत-से साधकों को गुरु के सान्निध्य में रहना तब तक अच्छा लगता है जब तक वे प्रेम देते हैं। परन्तु जब उन साधकों के उत्थानार्थ गुरु उनका तिरस्कार करते हैं, फटकारते हैं, उनका देहाध्यास तोडने के लिए विविध कसौटियों में कसते हैं तब साधक कहता है: ” गुरु के सान्निध्य में रहना तो चाहता हूँ परन्तु नियंत्रण में नहीं।
हम साधना तो करेंगे परन्तु स्वतंत्र रहकर मन उन्हें दगा देता है। यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि स्वेच्छाचार है। सच्ची स्वतंत्रता तो आत्मज्ञान में ही है और उस पर जल्दी आगे बढ़ने के लिए ही गुरु ने साधक को कंचन की तरह तपाना शरु किया था। परंतु साधक में यदि विवेक जागृत न हो तो मन उसे अध:पतन के ऎसे खड्डे में पटकता है कि उसे उठने में वर्षो लग जाते हैं, जन्मों लग जाते हैं।
अब जरा विचारिये तो सही ! आज तक जिस मन को हम अपने काबू में न रख सके और स्वेच्छाचरी होने के कारण भटकते रहे उस मन को ठीक करने के लिए ही तो हमने गुरु की शरण स्वीकारी थी। जब गुरु ने हमारे मन की मान्यताओं की चीर-फाड़ करने के लिए अपने अस्त्र-शस्त्र उठाये तो अब लौटकर किसलिए जाना ? होने दो जो होता है। हम कोई बच्चे जैसे अथवा रोगी तो हो नहीं कि हमारे ऑपरेशन के लिए ईथर या क्लोरोफार्म सुँघाया जाय।
अपने मन को समझाइये: ”अरे मन ! तू मुझे दगा देकर गुरु के द्वार से पुनः दूर धकेलना चाहता है ? मुझे अपने उसी पुराने जाल में फँसाना चाहता है ? जा, अब मैं तेरी एक न सुनूँगा। अब तक मैं बहुत भटका तेरी बात मानकर अब जन्म-मरण के चक्कर में अधिक नहीं भटकना है। यदि तेरा सुझाव मानकर अन्यत्र कहीं गया तो वहाँ भी किसी पति या पत्नी की, सेठ या नेता की, मान अथवा अपमान की दासता में तो रहना ही पड़ेगा क्योंकि जब तक अंदर का सुख नहीं मिलता तब तक सुख के लिए बाहरी किसी-न-किसी वस्तु या व्यत्कि की दासता तो स्वीकारनी ही पड़ेगी। अरे मन ! तो फिर यह गुरु का द्वार ही क्या बुरा है ?”
संत कबीरजी कहते हैं
दुर्जन की करुणा बुरी, भलो सांई को त्रास ।
सूरज जब गरमी करे, तब बरसन की आस ॥
सच पूछो तो गुरु हमारा कुछ लेना नहीं चाहते। वे हमको प्रेम देकर तो कुछ देते ही हैं, परन्तु फटकार देकर भी कोई उत्तम धन हमको देना चाहते हैं। भले हम इस बात को आज न समझें परन्तु यह वास्तविकता है। डॉक्टर ऑपरेशन द्वारा हमारे शरीर के विजातीय पदार्थो को ही निकालता है जिससे हमको आराम मिले। कर्मयोगी गंगा की तरह कर्म करता है और ज्ञानी हिमालय की तरह अर्थात मनुष्य के कर्म में भाव की प्रधानता होती है और ज्ञानी के कर्म मे ज्ञान की प्रधानता होते है या ज्ञान ही ज्ञान होता है। भूत का शोक और भविष्य की चिंता क्यों करते हो? वर्तमान में साक्षी, तटस्थ और प्रसन्नात्मा होकर जीयो।
“महाभारत” में आता है कि श्रीकृष्ण के जीवन में दुःख के निमित्तों की कमी नहीं है लेकिन शोक की एक रेखा भी नहीं है। सदा हँसते रहे, मुस्कराते रहे, गीत गाते रहे। कैसी भी परिस्थितियाँ आयीं लेकिन भगवान श्रीकृष्ण उन परिस्थितियों को सत्य मान के मुसीबतों का हौवा बनाकर अपने सिर पर ढोते नहीं थे बल्कि उऩ पर नाचते थे। महाभारत का युद्ध हो रहा है पर श्रीकृष्ण की बंसी बज रही है। कुछ के कुछ आरोप लग रहे हैं और बंसी बज रही है। जयकारे लग रहे हैं पर चित्त में समता है।
सुख-दुःख में कैसे जियें ? सुख-दुःख को साधन कैसे बनायें ? यह सब श्रीकृष्ण के अनुभव की पोथी “गीता” में है। गीता श्रीकृष्ण के ज्ञान की स्मृति (स्मृति-ग्रंथ) है । गीता किसी सम्प्रदाय अथवा मजहब की किताब नहीं है। इसमें श्रीकृष्ण के द्वारा जितना बुद्धि का आदर किया गया है, ऐसा और किसी जगह पर नहीं है। गीता कैसी भी परिस्थिति में अपनी बुद्धि को डाँवाडोल न होने देने की सीख देती है। अपने आप को सदैव पूर्ण शांत और आनंद मग्न रखो । चाहे जैसी घटना हो उसमे व्याघात नही होना चाहिये । भूख-प्यास, रोग, दुःख, अपमान और मृत्यु । सदैव प्रसन्नचित्त और शांत रहो, क्योंकि हम परमात्मा के अंश हैं, परम तत्व हैं।
जहाँ राग होता है वहाँ दूसरे की कोई गलती नहीं दिखती और जहाँ द्वेष होता है वहाँ दूसरे का सदगुण नहीं दिखाई देता। दूसरों को समझकर कार्य नहीं करते तो उनकी अच्छाई भी हमें बुराई ही दिखती है। ये राग-द्वेष भी होते हैं प्रज्ञा की कमी से….. प्रज्ञा के दोष के कारण ही हमें दूसरों की कंकड़ समान कमियाँ भी पहाड़ जैसी लगती हैं और अपनी पहाड़ जैसी कमियाँ भी कंकड़ जैसी लगती है। अपनी कमी का पता चलने पर भी उन्हें निकालने के लिए उतने सजग या उतने दृढ़ प्रयत्नशील नहीं रहते और अपने इस मिथ्या शरीर की प्रशंसा एवं वाहवाही सुनकर प्रसन्न होते हैं और खोये रहते हैं।
अरे ! वाहवाही से तो कुत्ता भी प्रसन्न हो जाता है, पुचकारने पर पूँछ हिलाता है और डण्डा दिखाने पर पूँछ दबा लेता है। फिर हम प्रसन्न या रुष्ट हो गये तो क्या बड़ी बात है ? प्रज्ञा के अपराध के कारण ही हम कुछ न जानते हुए भी अपने-आपको सर्वश्रेष्ठ समझने लगते हैं। यह मूर्खता नहीं तो और क्या है ? मनुष्य की प्रज्ञा का यह दोष दूर होता है बुद्धि का आदर करने से। बुद्धि का जितना आदर करोगे उतनी वह विकसित होगी। और बुद्धि की पराकाष्ठा है ब्रह्मज्ञान। बुद्धि के विकास के लिए आत्मज्ञान से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। यदि सब दुःखों से सदा के लिए छूटना है तो आत्मज्ञान पा लो।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय ।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो ।
श्री कृष्ण शरणम ममः
Aapne guruke barae me Best likha par kalyugme andhera jyda.muje aapka margdarshan mile.muje call kare.aum