जलेबियों का भोग
भाव के भूखे है भगवान
श्री कृष्णदास जी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे। महाप्रभु ने ठाकुर श्री श्रीनाथजी की सेवा का सम्पूर्ण भार इन्हे सौपा था। एक बार आप श्री ठाकुरजी के सेवा कार्य के लिये दिल्ली गये हुए थे। वहाँ बाजार मे कडाही से निकलती हुई गरमा गरम जलेबियों को देखकर, जैसे ही उसकी सुवास अंदर गयी वैसे ही आपने सोचा कि यदि इस जलेबी को हमारे श्रीनाथ जी पाते , तो उन्हें कैसा अद्भुत आनंद आता। उस बाजार में खड़े खड़े मानसी-सेवा मे (मन ही मन) ही कृष्णदास जी उन जलेबियों को स्वर्ण थाल में रखकर श्री श्रीनाथजी को भोग लगाया, भाववश्य भगवान ने उसे स्वीकार कर लिया।
वृन्दावन के एक संत कहा करते थे, जब संसार की कोई उत्कृष्ट वस्तु , उत्कृष्ट खाद्य सामग्री को जीव देखता है तो उसके मन मे दो भाव ही आ सकते है।
- पहला की इसका संग्रह मेरे पास होना चाहिए, इस वस्तु का मैं भोग कर लूं।
- दूसरा की यदि यह वस्तु मेरे प्रभु की सेवा में उपस्थित हो जाये तो उन्हें कैसा सुख होगा । संत के हृदय में सदा यह दूसरा भाव ही आता है।
उधर जब आरती करने से पहले मंदिर मे गुसाई जी ने भोग उसारा तो उन्होंने जो देखा उससे उन्हें अद्भुत आश्चर्य हुआ। श्रीनाथ जी ने विविध भोग सामग्रियों को एक ओर कर दिया है और जलेबीयों से भरा एक स्वर्ण का थाल मध्य में चमचमा रहा है। श्रीनाथ जी मंद मंद मुसकरा रहे थे और उनके हाथ में भी जलेबी प्रत्यक्ष मौजूद पायी गयी। गुसाई जी समझ गए कि आज किसी भक्त ने भाव के बल से इस सेवा का अधिकार प्राप्त कर लिया है।