जानिए गुरुपूर्णिमा कब से और क्यों मनाई जाती है?
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा एवं व्यासपूर्णिमा कहते हैं। गुरुपूर्णिमा गुरुपूजन का दिन है। गुरुपूर्णिमा का एक अनोखा महत्त्व और भी है। अन्य दिनों की तुलना में इस तिथि पर गुरुतत्त्व सहस्र गुना कार्यरत रहता है। इसलिए इस दिन किसी भी व्यक्ति द्वारा जो कुछ भी अपनी साधना के रूप में किया जाता है, उसका फल भी उसे सहस्र गुना अधिक प्राप्त होता है।
भगवान वेदव्यास जी ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाज योग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद महाभारत की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से इस दिन व्यासपूर्णिमा मनायी जाती है। इस दिन जो शिष्य ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के श्रीचरणों में पहुँचकर संयम-श्रद्धा-भक्ति से उनका पूजन करता है उसे वर्ष भर के पर्व मनाने का फल मिलता है।
भारत में अनादिकाल से आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता रहा है। गुरुपूर्णिमा का त्यौहार तो सभी के लिए है। भौतिक सुख-शांति के साथ-साथ ईश्वरीय आनंद, शांति और ज्ञान प्रदान करने वाले महाभारत, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत कथा आदि महान ग्रंथों के रचयिता महापुरुष वेदव्यासजी जैसे ब्रह्मवेत्ताओं का मानव ऋणी है।
भारतीय संस्कृति में सद्गुरु का बड़ा ऊँचा स्थान है। भगवान स्वयं भी अवतार लेते हैं तो गुरु की शरण जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण गुरु सांदीपनि जी के आश्रम में सेवा तथा अभ्यास करते थे। भगवान श्रीराम गुरु वसिष्ठ जी के चरणों में बैठकर सत्संग सुनते थे। ऐसे महापुरुषों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए तथा उनकी शिक्षाओं का स्मरण करके उसे अपने जीवन मे लाने के लिए इस पवित्र पर्व गुरुपूर्णिमा को मनाया जाता है।
गुरु का महत्त्व
गुरुदेव वे हैं, जो साधना बताते हैं, साधना करवाते हैं एवं आनंद की अनुभूति प्रदान करते हैं। गुरु का ध्यान शिष्य के भौतिक सुख की ओर नहीं, अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति पर होता है। गुरु ही शिष्य को साधना करने के लिए प्रेरित करते हैं, चरण दर चरण साधना करवाते हैं, साधना में उत्पन्न होने वाली बाधाओं को दूर करते हैं, साधना में टिकाए रखते हैं एवं पूर्णत्व की ओर ले जाते हैं। गुरु के संकल्प के बिना इतना बडा एवं कठिन शिवधनुष उठा पाना असंभव है। इसके विपरीत गुरु की प्राप्ति हो जाए, तो यह कर पाना सुलभ हो जाता है। श्री गुरु गीता में गुरु संज्ञा की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।।
अर्थ : “गु” अर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं “रु” अर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान। इस बात में कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञान के अंधकार को दूर करते हैं। इससे ज्ञात होगा कि साधक के जीवन में गुरु का महत्त्व अनन्य है। इसलिए गुरु प्राप्ति ही साधक का प्रथम ध्येय है। गुरु प्राप्ति से ही ईश्वर प्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरु प्राप्ति होना ही ईश्वर प्राप्ति है, ईश्वर प्राप्ति अर्थात मोक्ष प्राप्ति- मोक्ष प्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था। गुरु हमें इस अवस्था तक पहुंचाते हैं। शिष्य को जीवन मुक्त करने वाले गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है।
गुरुपूर्णिमा का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
इस दिन गुरु स्मरण करने पर शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायता होती है। इस दिन गुरु का तारक चैतन्य वायुमंडल में कार्यरत रहता है। गुरु पूजन करने वाले जीव को इस चैतन्य का लाभ मिलता है। गुरुपूर्णिमा को व्यासपूर्णिमा भी कहते हैं, गुरुपूर्णिमा पर सर्वप्रथम व्यास पूजन किया जाता है। एक वचन है – व्यासोच्छिष्टम् जगत् सर्वंम् । इसका अर्थ है, विश्वका ऐसा कोई विषय नहीं, जो महर्षि व्यासजी का उच्छिष्ट अथवा जूठन नहीं है अर्थात कोई भी विषय महर्षि व्यास जी द्वारा अनछुआ नहीं है। महर्षि व्यास जी ने चार वेदों का वर्गीकरण किया। उन्होंने अठारह पुराण, महाभारत इत्यादि ग्रंथों की रचना की है। महर्षि व्यासजी के कारण ही समस्त ज्ञान सर्वप्रथम हम तक पहुंच पाया। इसीलिए महर्षि व्यासजी को ‘आदिगुरु’ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं से गुरु-परंपरा आरंभ हुई । आद्यशंकराचार्यजी को भी महर्षि व्यास जी का अवतार मानते हैं।
गुरुपूजन का पर्व
गुरुपूर्णिमा अर्थात् गुरु के पूजन का पर्व।
गुरुपूर्णिमा के दिन छत्रपति शिवाजी भी अपने गुरु का विधि-विधान से पूजन करते थे।
वर्तमान में सब लोग अगर गुरु को नहलाने लग जायें, तिलक करने लग जायें, हार पहनाने लग जायें तो यह संभव नहीं है। लेकिन षोडशोपचार की पूजा से भी अधिक फल देने वाली मानस पूजा करने से तो भाई ! स्वयं गुरु भी नही रोक सकते। मानस पूजा का अधिकार तो सबके पास है।
गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर मन-ही-मन हम अपने गुरुदेव की पूजा करते हैं…. मन-ही-मन गुरुदेव को कलश भर-भरकर गंगाजल से स्नान कराते हैं…. मन-ही-मन उनके श्रीचरणों को पखारते हैं…. परब्रह्म परमात्म स्वरूप श्रीसद्गुरुदेव को वस्त्र पहनाते हैं…. सुगंधित चंदन का तिलक करते है…. सुगंधित गुलाब और मोगरे की माला पहनाते हैं…. मनभावन सात्विक प्रसाद का भोग लगाते हैं…. मन-ही-मन धूप-दीप से गुरु की आरती करते हैं….
इस प्रकार हर शिष्य मन-ही-मन अपने दिव्य भावों के अनुसार अपने सद्गुरुदेव का पूजन करके गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व मना सकता है। करोड़ों जन्मों के माता-पिता, मित्र-सम्बंधी जो न दे सके, सद्गुरुदेव वह हँसते-हँसते दे डा़लते हैं।
हे गुरुपूर्णिमा ! हे व्यासपूर्णिमा ! तु कृपा करना…. गुरुदेव के साथ मेरी श्रद्धा की डोर कभी टूटने न पाये…. मैं प्रार्थना करता हूँ गुरुवर ! आपके श्रीचरणों में मेरी श्रद्धा बनी रहे, जब तक है जिन्दगी…..रा ही मान्यताएँ, कृत्रिमता तथा राग-द्वेषादि बढा़ता है और अंत में ये मान्यताएँ ही दुःख में बढा़वा करती हैं। अतः मनुष्य को चाहिये कि वह सदैव जागृत रहकर सत्पुरुषों के सत्संग, सान्निध्य में रहकर परम तत्त्व परमात्मा को पाने का परम पुरुषार्थ करता रहे।
Leave A Comment