Govind Devji Temple

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Shri Govind Devji Darshan
Shri Govind Devji Darshan

गोविन्द देव जी मंदिर

गोविन्द देव जी मंदिर वृंदावन का निर्माण ई. 1590 (सं.1647) में हुआ। यह मदिर श्री रूप गोस्वामी और सनातन गुरु, श्री कल्यानदास जी के देख रेख में हुआ। श्री गोविन्द देव जी मंदिर का पूरा निर्माण का खर्च राजा श्री मानसिंह पुत्र राजा श्री भगवान दास, आमेर (जयपुर, राजस्थान) ने किया था। जब मुस्लिम सम्राट औरंगजेब ने इसे नष्ट करने की कोशिश की थी तब गोविंददेव जी को वृंदावन से ले जा कर जयपुर प्रतिष्ठित किया गया था, अब मूल देवता जयपुर में है।

Govind Devji Temple
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भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात विग्रह है गोविंद देवजी

जयपुर के आराध्य गोविन्द देवजी का विग्रह (प्रतिमा) भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरुप कहा जाता है। पौराणिक इतिहास और कथाओं की मानें तो यह कहा जाता है कि श्रीगोविन्द देवजी का विग्रह हूबहू भगवान श्रीकृष्ण के सुंदर और नयनाभिराम मुख मण्डल व नयनों से मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण के तीन विग्रह बनाए गए। और तीनों विग्रह राजस्थान में है। दो विग्रह जयपुर में है और तीसरा विग्रह करौली में श्री मदन मोहन जी के नाम से विख्यात है।

जयपुर में श्री गोविन्द देवजी के अलावा श्री गोपीनाथ जी का विग्रह भी है। यह विग्रह भी उतना ही पूजनीय और श्रद्धावान है, जितने गोविन्द देव जी और मदन मोहन जी का विग्रह है। ये तीनों ही विग्रह भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरुप माने जाते हैं। इतिहासकारो और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने ये तीनों विग्रह बनवाए थे।

Govind Devji Darshan
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अर्जुन के पौत्र महाराज परीक्षित ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ को मथुरा मण्डल का राजा बनाया था। बज्रनाभ जी की अपने पितामह श्रीकृष्ण के प्रति खासी श्रद्धा थी और उन्होंने मथुरा मण्डल में श्रीकृष्ण जी की लीला स्थलियों का ना केवल उद्धार किया, बल्कि भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात विग्रह बनाने का निश्चय किया। बज्रनाभ जी की दादी ने भगवान श्रीकृष्ण को देखा था। दादी जी के बताए अनुसार बज्रनाभ ने श्रेष्ठ कारीगरों से विग्रह तैयार करवाया। इस विग्रह को देखकर बज्रनाभ की दादी ने कहा, कि भगवान श्रीकृष्ण के पांव और चरण तो उनके जैसे ही हैं, पर अन्य बनावट भगवान श्री कृष्ण से नहीं मेल खाते हैं।

बज्रनाभ जी ने इस विग्रह को मदन मोहन जी का नाम दिया। यह विग्रह करौली में विराजित है। बज्रनाभ जी ने दूसरा विग्रह बनवाया, जिसे देखकर दादी ने कहा कि इसके वक्षस्थल और बाहु भगवान श्री स्वरुप ही है। शरीर के दूसरे अवयव भगवान श्रीकृष्ण से मेल नहीं खाते हैं। इस विग्रह को बज्रनाभ जी ने भगवान श्री गोपीनाथ जी का स्वरुप कहा। भगवान का यह स्वरुप पुरानी बस्ती में भव्य मंदिर में विराजित है।

दादी जी के बताए गये हुलिये के आधार पर तीसरा विग्रह बनवाया गया तो उसे देखकर बज्रनाभ की दादी के नेत्रों से खुशी के आसूं छलक पड़े और उस विग्रह देखकर दादी कह उठी कि भगवान श्रीकृष्ण का अलौकिक, नयनाभिराम और अरविन्द नयनों वाला सुंदर मुखारबिन्द ठीक ऐसा ही था। भगवान का यह तीसरा विग्रह श्री गोविन्द देवजी का स्वरुप कहलाया, जो जयपुर के सिटी पैलेस के पीछे जयनिवास उद्यान में है।

भगवान के इस अलौकिक विग्रह को देखकर को बज्रनाभ जी भी आनान्दित हो गए। फिर उन तीनों विग्रह को पुरे विधि-विधान से भव्य मंदिर बनाकर विराजित किया गया। श्रीकृष्ण के साक्षात स्वरुप के विग्रह होने के कारण भक्तों में इनके प्रति खासी श्रद्धा है और मान्यता भी है। तीनों विग्रहों के दर्शनो के लिए रोजाना लाखों भक्त आते हैं और हर भक्त इनके दर्शन को लालायित रहता है। श्री गोविन्ददेवजी तो जयपुर के आराध्य है।

जयपुर राजपरिवार के लोग तो श्रीकृष्ण को राजा और खुद को उनका दीवान मानकर सेवा-पूजा करता रहा है। ठाकुरजी की झांकी अत्यधिक मनोहारी है। जयपुर घूमने आए हर पर्यटक भगवान श्रीगोविन्द देव जी के दर्शन करने जरुर आते हैं। ऐसा ही कुछ आकर्षण भगवान श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन के विग्रह का है, जो भक्तों को अपने साथ बांधे रखता है। कहा जाता है कि इन तीनों विग्रहों के दर्शन एक दिन में ही करने को काफी शुभ माना जाता है।

पुर्न विराजित करने का इतिहास

जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के तीनों विग्रह (श्री मदन मोहन जी, श्री गोपीनाथ जी और श्री गोविन्द देवजी) के निर्माण का इतिहास रोचक है, वैसे ही भगवान श्री कृष्ण के विग्रहों को आततायी शासकों से सुरक्षित बचाए रखने और इन्हें पुर्न विराजित करने का इतिहास भी उतना ही प्रेरणादायी है। श्री गोविन्द देवजी, श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन जी का विग्रह करीब पांच हजार साल प्राचीन माना गया है। श्री बज्रनाभ शासन की समाप्ति के बाद मथुरा मण्डल व अन्य प्रांतों पर यक्ष जाति का शासन रहा था।

यक्ष जाति के भय और उत्पाद के चलते पुजारियों ने तीनों विग्रह को भूमि में छिपा दिया। गुप्त शासक नृपति परम जो वैष्णव अनुयायी थे। इन्होंने भूमि में सुलाए गए स्थलों को खोजकर भगवान कृष्ण के विग्रहों को फिर से भव्य मंदिर बनाकर विराजित करवाया। दसवीं शताब्दी में मुस्लिम शासक महमूद गजनवी के आक्रमण बढ़े तो फिर से भगवान श्रीकृष्ण के इन विग्रहों को प्रथ्वी में छिपाकर उस जगह पर संकेत चिन्ह अंकित कर दिए गये।

Govind Devji Temple
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कई वर्षो तक मुस्लिम शासन रहने के कारण पुजारी और भक्त इन विग्रह के बारे में भूल गए। सोलहवीं सदी में ठाकुरजी के परम भक्त चैतन्यू महाप्रभु ने अपने दो शिष्यों रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को वृन्दावन भेजकर भगवान श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोजने के लिये कहा। दोनों शिष्यों ने मिल के भगवान श्री कृष्ण के लीला स्थलों को खोजा। इस दौरान भगवान श्रीगोविन्द देवजी ने रुप गोस्वामी को सपने में दर्शन दिए और उन्हें वृन्दावन के गोमा टीले पर उनके विग्रह को खोजने को कहा।

सदियों से भूमि में छिपे भगवान के विग्रह को ढूंढकर श्री रुप गोस्वामी ने एक कुटी में विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की। उस समय के मुगल शासक अकबर के सेनापति और आम्बेर के राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की। सन 1590 में वृन्दावन में लाल पत्थरों का एक सप्तखण्डी भव्य मंदिर बनाकर भगवान के विग्रह को विराजित किया। मुगल साम्राज्य में इससे बड़ा और कोई देवालय नहीं बना था।

बाद में उड़ीसा से राधारानी का विग्रह श्री गोविन्द देवजी के साथ प्रतिष्ठित किया गया। मुगल शासक अकबर ने गौशाला के लिए भूमि दान मे दी, लेकिन बाद में मुगल शासक औरंगजेब ने गौशाला भूमि के पट्टे को रद्द कर ब्रजभूमि के सभी मंदिरों व मूर्तियों को तोडऩे का हुक्म दिया तो पुजारी शिवराम गोस्वामी व भक्तों ने श्री गोविन्द देवजी, राधारानी व अन्य विग्रहों को लेकर जंगल में जा छिपे। बाद में आम्बेर के राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह के संरक्षण में ये विग्रह भरतपुर के कामां में लाए गए।

राजा मानसिंह ने आमेर घाटी में गोविन्द देवजी के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की। जो आज कनक वृन्दावन के नाम से प्रसिद है और यह प्राचीन गोविन्द देव जी का मंदिर भी है। जयपुर में बसने के बाद राजा सवाई जयसिंह ने कनक वृंदावन से श्री राधा-गोविन्द जी के विग्रहो को चन्द्रमहल के समीप बने जयनिवास उद्यान में बने सूर्य महल में प्रतिष्ठित करवाया।

चैतन्य महाप्रभु की गौर-गोविन्द की लघु प्रतिमा को भी श्री गोविन्द देवजी के पास ही विराजित किया है। श्री गोविन्ददेवजी की झांकी के दोनों तरफ दो सखियां खड़ी है। इनमें एक विशाखा सखी जो सवाई जयसिंह ने बनवाई थी। राधा-रानी की सेवा के लिए यह प्रतिमा बनवाई गई। दूसरी प्रतिमा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाई। यह ललिता सखी है, जो भगवान श्री गोविन्ददेवजी की पान सेवा किया करती थी। उस सेविका के ठाकुर के प्रति भक्ति भाव को देखते हुए ही सवाई प्रताप सिंह ने उनकी प्रतिमा बनाकर विग्रह के पास प्रतिस्थापित की।

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