Bhakti Hee Aahlaad Hai

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Lord Krishna and Sudama in Vrindavan
Lord Krishna and Sudama in Vrindavan

भक्ति ही आह्लाद है

भक्त होना प्राप्ति नहीं ! पूर्णभाव कृपा प्रसाद है ! भक्ति के या प्रीति के प्रयासों को भक्ति नहीं कहते …. प्रयास पूर्ण निष्काम भाव से आत्मा की गहराई से हो तब ही हरि कृपा अनुभुत् होती है | कोई भक्त हो और कहे मैं राधा अनुगामी नहीँ , अगर भक्ति है तो वहीँ स्वयं राधा है , भले स्वीकार्य न हो । राधा में रा राम का बोधक कराता है , अग्नि का बीज मन्त्र र है । अग्नि ही पदार्थो में नित्य है । रा का अर्थ सर्वत्र रमा हुआ परब्रह्म । धा का अर्थ धारणा , धर्म । व्यापक सर्वत्र रमण आनन्दमय लीलामय परब्रह्म कृष्ण की धारणा जिस शक्ति से हो वही “राधा” है । राधा नेत्र है आनन्द रूपी कृष्ण के दर्शन के लिए । निष्काम प्रीति से ईश्वर दर्शन देते है ।

कामना ईश्वर की जीव से मुक्ति है । निष्काम प्रीति से सत चित् को आह्लाद मिलता है और आनन्द नित्य हो उठता है । आनन्द को मैं सम्पुटित मानता हूँ अर्थात् दोनों और से ढका हुआ करुणा से ।।। आनन्द के प्रारम्भ और पूर्णता में करुणा निहित है । प्रेम जब नदी बन जाये तो करुणा प्रगट होती है अर्थात् भावों की वह स्थिति जहाँ कृष्ण के होने न होने पर भी कृष्ण का ही होना हो और ऐसे भावावेश में रस को न सम्भाल पाने पर करुणा खिलने लगती है ।।। जित देखु तित लाल की स्थिति करुणा है । बाह्य जगत को रस और करुणा प्रेम आनन्द एक पागलपन ही प्रतीत होता है ।

कृष्ण जन्म पूर्व से उत्सव बार बार जीव में ईश्वर को सुख देने का सहज कारण बनते है । प्रतीति तो होती है आनन्द दिया जा रहा है वस्तुतः आनन्द मिल रहा है । कृष्ण नित्य आनन्दित है जीवन के किसी भी समय उन्हें संग ले नाच लो , खेल लो , झूम लो । जीव निष्काम प्रीति से जड़ सुख से सदा के सुख की ओर बढ़ता है । कृष्ण नित्य आनन्दित है परन्तु जीव नित्य रसमय रहे अतः अवतरण काल में व्यवहारिकी लीलायें की गई । और नित्य लीला ईश्वर के नित्य उत्कर्ष (आनन्द) के वर्धन के लिए ही है जहाँ नायक नहीं नायिका प्रधान है वहीँ आह्लादिनी शक्ति श्री राधा जो कृष्ण के भीतरी कृष्णत्व की कारिणी है।

अविद्या में दो (द्वेत) होना ही अविद्या है । परन्तु लीला में रस वर्धन आनन्दघन के आनन्द वर्धन हेतु दो हुआ जाता है । अर्थात् जीव की उत्पति भगवान का रस वर्धन हेतु ही है | जीव की भगवत् प्राप्ति में भगवदियानन्द की भी वृद्धि निहित है । परन्तु जीव भगवत् आनन्द रस को जब ही बढ़ा सकता है जब पूर्ण निष्काम भाव से सेवा , लीला , भजन में लगा रहे | अगर ईश्वरीय निक्षिप्त शक्ति प्राप्त साधक है तो सहज निष्काम होगा क्योंकी वहाँ आह्लादिनी शक्ति निहित है जो रस देने हेतु ही है । वहाँ भोक्ता केवल श्री कृष्ण (भगवान) और शेष सब उन्ही की शक्ति से लीला रस में उन्ही के रूप-अंश में भोग्य है । अर्थात् पात्र उनका व्यंजन उनका पकाया उन्होंने भोजन भी वहीँ ही करें । एक रूपी ईश्वर ही कृष्ण , राधा , गोपी और वृन्दावन रूप में प्रगट होते है । कारण विभिन्न उपादानों से रस वर्धन । आनन्दवर्धन ।

बोलिये द्वारकाधीश महाराज की जय।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो ।
श्री कृष्ण शरणम ममः

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