Bhagwan Shiv Ji Ke Avatar Shri Veerabhadra Ji Ki Utpatti Ki Katha

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Bhagwan Shiv Ji Ke Avatar Shri Veerabhadra Ji Ki Utpatti Ki Katha
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भगवान शिव जी के अवतार श्री वीरभद्र जी के उत्पति की कथा

श्री शिवपुराण जी की रुद्र संहिता द्वितीय खण्ड अध्याय 32 के अनुसार भगवान श्री शिव जी का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में श्री सती जी ने अपनी देह का त्याग किया था। भगवान श्री शिव जी के मना करने के उपरांत माँ श्री सती जी अपने पिता दक्ष के द्वारा आयोजित यज्ञ में गयी । वहाँ पर देखा कि भगवान श्री शिव जी भाग नहीं, और दूसरे देवताओं के लिये भाग है, दक्ष ने उच्च स्वर से दुर्वचन भी कहे। ये सब देख व सुनकर श्री सतीजी कुपित हो उठीं और पिता के द्वारा बारंबार दुर्वचन सुनकर तत्काल अपने शरीर को योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। यह देख दस हजार से अधिक पार्षद दक्ष पर कुपित हो उठे और सबको भय पहुँचाते हुए वेग पूर्वक उस यज्ञ का विध्वंस करने लगे परंतु विरोधी भृगु ने कुछ गणों को भागने पर विवश कर दिया।

पार्षदो और श्री नारद जी द्वारा पूर्ण व्रतांत सुनकर शिवजी को मह्मन् रौद्र आया, सर्वेश्वर रुद्र ने तुरंत ही बड़ा भारी क्रोध प्रकट किया लोक संहार कारी रुद्र ने अपने सिरसे एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक उस पर्वत के ऊपर दे मारा। भगवान् शंकर जी के पटकने से उस जटा के दो टुकड़े हो गये और महाप्रलय के समान भयंकर शब्द प्रकट हुआ। उस जटा के पूर्वभाग से महा भयंकर महाबली श्री वीरभद्र जी प्रकट हुए, जो समस्त शिव गणों के अगुआ हैं। वे भूमण्डलको सब ओरसे व्याप्त करके उससे भी दस अंगुल अधिक होकर खड़े हुए। वे देखनेमें प्रलयाग्नि के समान जान पड़ते थे। उनका शरीर बहुत ऊँचा था। वे एक हजार भुजाओं से युक्त थे।

उन सर्वसमर्थ महारुद्रके क्रोधपूर्वक प्रकट हुए नि:श्वास से सौ प्रकार के ज्वर और तेरह प्रकार के संनिपात रोग पैदा हो गये। उस जटा के दूसरे भाग से श्री महाकाली जी उत्पन्न हुईं, जो बड़ी भयंकर दिखायी देती थीं। वे करोड़ों भूतों से घिरी हुई थीं। जो ज्चर पैदा हुए, वे सब-के-सब शरीरधारी, क्रूर और समस्त लोकों के लिये भयंकर थे। श्री वीरभद्र जी बोले, प्रभो शीघ्र आज्ञा दे, क्या सारे समुद्रों को सुखाना, सम्पूर्ण पर्वतों को पीसना,ब्रह्माण्ड को भस्म करना, समस्त देवताओं और मुनीश्वरों को जलाकर राख करना, समस्त लोकों को उलट-पलट करना, सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश करना। यह बात सुनकर भगवान् शिव जी बहुत संतुष्ट हुए और वीरभद्र ! तुम्हारी जय हो ऐसा आशीर्वाद देकर वे फिर बोले।

मेरे पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र! ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा दुष्ट है। उस मूर्ख को बड़ा घमंड हो गया है। मेरा विरोध करने लगा है। दक्ष इस समय एक यज्ञ करने के लिये उद्यत है। तुम याग-परिवार सहित उस यज्ञ को भस्म करो ,यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई साथ दे तो उन्हें भस्म कर देना। दधीचि की दिलायी हुई मेरी शपथ का उल्लंघन करके जो देवता आदि वहाँ ठहरे हुए हैं, उन्हें तुम निश्चय ही प्रयत्नपूर्वक जलाकर भस्म कर देना। वीर! वहाँ दक्ष आदि सब लोगों को पत्नी और बन्धु-बान्धवों सहित जलाकर (कलशों में रखे हुए) जल को लीला पूर्वक पी जाना। श्री वीरभद्र जी द्वारा सभी कार्य पूर्ण किये।

बोलो श्री वीरभद्र जी भगवान की जय।

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