भाव से व्रत-उपवास करो
एक राजा के आदेश पर उसकी सारी प्रजा एकादशी का व्रत रखती थी। राजा ने अपने राज्य में घोषणा करा रखी थी कि कोई भी व्यक्ति एकादशी के दिन भोजन नहीं करेगा। सभी को फलाहार करके रहना होगा। राज्य में बड़ा कठोर नियम लागू था। राजा के आदेश पर पशुओं को भी एकादशी को चारा नहीं दिया जाता था। वैसे राजा दुष्ट नहीं था। एक महात्मा ने बताया था कि एकादशी के दिन व्रत रखने से मोक्ष मिल जाता है। राजा ने महात्माजी की बात अधूरी सुनी और उसने सोचा कि क्यों न स्वयं को और प्रजा दोनों को मोक्ष दिलाया जाए ताकि बार-बार जन्म लेने के झंझट से छुटकारा मिल। इसीलिए राज्य में एकादशी के वृत्त का कठोर नियम प्रजा और यहां तक कि मवेशियों पर भी लागू था। एक दिन दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला- महाराज ! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। दयालु राजा उसे नौकरी देने को राजी हो गया लेकिन उसने, उस व्यक्ति के सामने एक शर्त रखी कि एकादशी को खाने को अन्न नहीं मिलेगा।
बेरोजगारी के कारण उस आदमी ने उस समय तो ‘हाँ’ कर ली, लेकिन जब एकादशी के वृत्त को उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने पहुंचा और गिड़गिड़ाने लगा- महाराज ! इससे मेरा पेट नहीं भर पायेगा। इससे तो मैं भूखा ही मर जाऊँगा। मुझे खाने को और अन्न दीजिए। तब राजा ने उसे शर्त याद दिलाई, लेकिन वह अन्न छोड़ने को राजी नहीं था। राजा ने उसे फिर से समझाया की एकादशी व्रत रख लो। इससे वन-मृत्यु के बंधन से मुक्ती हो जाओगी। लेकिन वह एक ही रट लगाए हुये था- महाराज ! मैं यदि भूख से मरा तो आपको दोष लगेगा। मजबूरन राजा ने उसे और अन्न दिया। वह रोज की तरह नदी पर पहुंचा। स्नानकर भोजन पकाया। फिर उसने भगवान को पुकारा- आओ भगवान ! भोजन तैयार है। भगवान चतुर्भुज रूप में आए, प्रेम से भोजन किया फिर अंतर्ध्यान हो गए। भगवान को भोजन करने के बाद वह आदमी अपने काम पर चला गया। पंद्रह दिन बाद फिर एकादशी आई। इस बार उस व्यक्ति ने राजा से दुगुना अन्न मांगा। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि मेरे साथ में भगवान भी भोजन करते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता। मैं तो पिछली एकादशी को भूखा ही रह गया।
राजा को लगा कि यह इंसान तो बड़ा ही पेटू है। भगवान के नाम पर अन्न मांगे ही जा रहा है। लेकिन अब भगवान के नाम पर अन्न मांगा है तो देना ही पड़ेगा। राजा ने परेशान होते हुए अपने नौकरों से कहा इसे दुगना अन्न दे दो। पंद्रह दिन बाद फिर एकादशी आई। वह फिर राजा के पास पहुंचा और इस बार उसने राजा से पिछली एकादशी से भी दुगुना अन्न मांगा। इस बार भी उस व्यक्ति ने कहा कि भगवान भी उसके साथ भोजन करते हैं, इसलिए लिए भोजन कम पड़ जाता है। यह सब बाते सुनकर राजा को क्रोध आया। वह बोला- मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ भोजन करते है। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे अभी तक दर्शन नहीं दिए। और तुम्हारे जैसे पेटू के साथ हर एकादशी को भोजन करते हैं। तुम झूठ बोलकर अन्न मत मांगो। राजा की बात सुनकर वह व्यक्ति बोला- राजन यदि आपको विश्वास न हो तो आप खुद देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया और भगवान को पुकारता रहा। पुकारते-पुकारते शाम हो गई लेकिन भगवान आए ही नहीं।
वह झूठा साबित हो रहा था। तब उस व्यक्ति ने परेशान होकर कहा- हे भगवान ! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर अपनी जान दे दूंगा। फिर भी भगवान नहीं आए। जान देने के लिए उसने नदी में छलांग लगाई तो भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया। भगवान ने उस व्यक्ति के साथ में भोजन किया और फिर उसे अपने साथ लेकर जाने लगे। राजा वहां पहुंचा और भगवान के पैरों में लोट गया। उसने पूछा- मैं इतना पूजा-व्रत करता हूं फिर भी आपने कभी दर्शन नही दिए जबकि एकादशी को भी अन्न खाने वाले के साथ आप स्वयं भोजन करते हैं। भगवान ने समझाया- मुझे सुख तुम्हारे शरीर के कष्ट से नहीं मिलता है। यदि तुम शुद्ध मन से व्रत-उपवास करते हो तब मैं भी तुम्हारे साथ उपवास कर भूख की पीड़ा महसूस करता हूं और तुम्हें अन्न-धन की कमी न हो इसका प्रबंध करता हूं।
अगर तुम बंधन समझ कर पूजा-व्रत करोगे तो फिर मुझे तो इससे दूर ही रखो। भक्त मुझे बंधन में बांध सकते है, पर बल से नहीं केवल भाव से। भगवन की बात सुनकर राजा को ज्ञान मिला।
व्रत-पूजा का तब तक कोई लाभ नहीं जब तक वह शुद्ध मन से न हो।
श्री द्वारिकेशो जयते।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः
Nice story
Thanks, Kapil Agrawal.