आयुर्वेद के प्रणेता महर्षि चरक
चरक पहले चिकित्सक हैं, जिन्होंने पाचन, चयापचय और शरीर प्रतिरक्षा की अवधारणा दुनिया के सामने रखी। उन्होंने बताया कि शरीर के कार्य के कारण उसमें तीन स्थायी दोष पाए जाते हैं, जिन्हें पित्त, कफ और वायु के नाम से जाना जाता है। ये तीनों दोष शरीर में जब तक संतुलित अवस्था में रहते हैं, व्यक्ति स्वस्थ रहता है। लेकिन जैसे ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है, व्यक्ति बीमार हो जाता है। इसलिए शरीर को स्वस्थ करने के लिए इस असंतुलन को पहचानना और उसे फिर से पूर्व की अवस्था में लाना आवश्यक होता है।
भारतवर्ष ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ का सम्पादन किया। चरक संहिता आयुर्वेद का प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिसमें रोगनिरोधक एवं रोगनाशक दवाओं का उल्लेख है। इसके साथ ही साथ इसमें सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं से निर्मित भस्मों एवं उनके उपयोग की विधि बताई गयी है। कुछ लोग भ्रमवश आचार्य चरक को ‘चरक संहिता’ का रचनाकार बताते हैं, पर हकीकत यह है कि उन्होंने आचार्य अग्निवेश द्वारा रचित ‘अग्निवेश तन्त्र’ का सम्पादन करने के पश्चात उसमें कुछ स्थान तथा अध्याय जोड्कर उसे नया रूप प्रदान किया। ‘अग्निवेश तंत्र’ का यह संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण ही बाद में ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना गया।
आयुर्वेद का इतिहास
भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता माना गया है। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों को पैदा किया। जब मनुष्य पैदा हुए, तो उनके साथ भाँति-भाँति के रोग भी उत्पन्न हुए। उन रोगों से निपटने के लिए ब्रह्मा ने आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम प्रजापित को दिया। प्रजापति से यह ज्ञान अश्विनीकुमारों के पास पहुँचा। वैदिक साहित्य में अश्विनी कुमारों के चमत्कारिक उपचार की अनेक कथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। अश्विनीकुमारों की विद्या से अभिभूत होकर देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया।
‘चरक संहिता’ के अनुसार एक बार धरती पर अनेक महामारियों का प्रकोप हुआ। इससे चिंतित होकर तमाम ऋषियों ने हिमालय की तराई में एक बैठक बुलाई। इस बैठक में असित, अगस्त्य, अंगिरा, आस्वराथ्य, आश्वलायन, आत्रेय, कश्यप, कपिंजल, कुशिक, कंकायण, कैकशेय, जमदाग्नि, वसिष्ठ, भृगु, आत्रेय, गौतम, सांख्य, पुलत्स्य, नारद, वामदेव, मार्कण्डेय, पारीक्षी, भारद्वाज, मैत्रेय, विश्वामित्र, भार्गव च्वयन अभिजित, गार्ग्य, शाण्डिल्य, कौन्दिन्य, वार्क्षी, देवल, मैम्तायानी, वैखानसगण, गालव, वैजवापी, बादरायण, बडिश, शरलोमा, काप्य, कात्यायन, धौम्य, मारीचि, काश्यप, शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, लौगाक्षी, पैन्गी, शौनक, शाकुनेय, संक्रित्य एवं वालखिल्यगण आदि ऋषियों ने भाग लिया। बैठक में सर्वसम्मति से भारद्वाज को अगुआ चुना गया और बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए उन्हें इन्द्र के पास भेजा गया। इन्द्र ने आयुर्वेद का समस्त ज्ञान ऋषि भारद्वाज को दिया। बाद में भारद्वाज ने अपने शिष्य आत्रेय-पुनर्वसु को इस महत्वपूर्ण ज्ञान से परिचित कराया।
आत्रेय-पुनर्वसु के छ: शिष्य थे- अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि। बाद में इन शिष्यों ने अपनी-अपनी प्रतिभानुसार आयुर्वेद ग्रन्थों की रचना की। इनमें से ज्यादातर ने आत्रेय के ज्ञान को ही संग्रहीत किया और उनमें थोड़ा-बहुत परिमार्जन किया। आत्रेय के इन तमाम शिष्यों में अग्निवेश विशेष प्रतिभाशाली थे। उनके द्वारा संग्रहीत ग्रन्थ ही कालांतर में ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना गया। चूँकि चरक संहिता के रचनाकार अग्निवेश थे, इसलिए उसे ‘अग्निवेश संहिता’ के नाम से भी जाना जाता है।
चरक का परिचय
चरक कब पैदा हुए, उनका जन्म कहाँ पर हुआ, इतिहास में इसका कोई वर्णन नहीं मिलता है। ‘त्रिपिटक’ के चीनी अनुवाद में चरक का परिचय कनिष्क के राजवैद्य के रूप में दिया गया है। किंतु ध्यान देने वाली बात यह है कि कनिष्क बौद्ध राजा था और उसका कवि अश्वघोष भी बौद्ध था। पर चरक संहिता में बौद्धमत का जोरदार खण्डन किया गया है। इससे यह बात गलत साबित हो जाती है कि चरक कनिष्क का राजवैद्य था। किन्तु विद्वानगण इस कथन का आशय इस तरह से लगाते हैं कि चरक कनिष्य के समय में रहा होगा। चरक संहिता में अनेक स्थानों पर उत्तर भारत का जिक्र मिलता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि चरक उत्तर भारत के निवासी रहे होंगे। दुर्भाग्यवश इसके अलावा चरक के विषय में अन्य कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आयुर्वेद के विकास की जो कहानी प्रचलित है, उसमें भारद्वाज, पुनर्वसु और अग्निवेश ही ऐतिहासिक रूप में प्रामाणिक व्यक्ति माने गये हैं। भगवान बुद्ध के काल में मगध राज्य में जीवक नाम के प्रसिद्ध वैद्य का जिक्र मिलता है। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि आयुर्वेद का अध्ययन करने के लिए चरक तक्षशिला गये थे। वहाँ पर उन्होंने आचार्य आत्रेय से आयुर्वेद की दीक्षा प्राप्त की। इससे यह कहा जा सकता है कि आत्रेय-पुनर्वसु संभवत: आज से लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पहले हुए। इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि चरक आज से लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व हुए।
चरक संहिता
Charaka Samhita by Center for Council for Research in Ayurveda and Siddha, New Delhi.
चरक संहिता आयुर्वेद का उपलब्ध सबसे पुराना एवं प्रामाणिक ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसके प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में लिखा गया है- ‘भगवान आत्रेय ने इस प्रकार कहा।’ इसके कुछ अध्यायों के अन्त में बताया गया है कि ‘इस तंत्र यानी शास्त्र को आचार्य अग्निवेश ने तैयार किया, चरक ने इसका संपदन किया और दृढ़बल ने इसे पूरा किया।’ इससे यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में ऋषि आत्रेय के उपदेशों को संग्रहीत किया गया है। अग्निवेश ने इसे ग्रन्थ का रूप दिया, चरक ने इसमें संशोधन किया और दृढ़बल ने इसमें कुछ अध्याय जोड़े। किन्तु इसे कालांतर में ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना गया, इसलिए लोगों में यह भ्रम फैला कि यह चरक की ही रचना है।
इस रचना को चरक संहिता क्यों कहा गया, इसके पीछे विद्वानों का तर्क है कि हमारे देश में चरक नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। हो सकता है कि अग्निवेश की शिष्य परम्परा में किसी चरक नामक शिष्य ने इसका खूब प्रचार-प्रसार किया हो, इसलिए इसका नाम चरक संहिता पड़ गया हो। जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि अग्निवेश के शिष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा-जाकर रोगियों का इलाज करते थे। उनके निरंतर चलते रहने के कारण ही इसका नाम ‘चरक’ पड़ गया होगा।
चरक संहिता में कुछ शब्द पालि भाषा के मिलते हैं, जैसे अवक्रांति, जेंताक (जंताक-विनयपिटक), भंगोदन, खुड्डाक, भूतधात्री (निद्रा के लिये)। इस आधार पर कुछ विद्वान इसका उपदेशकाल उपनिषदों के बाद और बुद्ध के पूर्व का मानते हैं। उनका यह भी मानना है कि इसका प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय अर्थात लगभग 78 ई. में हुआ।
चरक संहिता का संगठन: चरक संहिता की रचना संस्कृत भाषा में हुई है। यह गद्य और पद्य में लिखी गयी है। इसे आठ स्थानों (भागों) और 120 अध्यायों में विभाजित किया गया है। चरक संहिता के आठ स्थान निम्नानुसार हैं:
- सूत्रस्थान: इस भाग में औषधि विज्ञान, आहार, पथ्यापथ्य, विशेष रोग और शारीरिक तथा मानसिक रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया गया है।
- निदानस्थान: आयुर्वेद पद्धति में रोगों का कारण पता करने की प्रक्रिया को निदान कहा जाता है। इस खण्ड में प्रमुख रोगों एवं उनके उपचार की जानकारी प्रदान की गयी है।
- विमानस्थान: इस अध्याय में भोजन एवं शरीर के सम्बंध को दर्शाया गया है तथा स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन के बारे में जानकारी प्रदान की गयी है।
- शरीरस्थान: इस खण्ड में मानव शरीर की रचना का विस्तार से परिचय दिया गया है। गर्भ में बालक के जन्म लेने तथा उसके विकास की प्रक्रिया को भी इस खण्ड में वर्णित किया गया है।
- इंद्रियस्थान: यह खण्ड मूल रूप में रोगों की प्रकृति एवं उसके उपचार पर केन्द्रित है।
- चिकित्सास्थान: इस प्रकरण में कुछ महत्वपूर्ण रोगों का वर्णन है। उन रोगों की पहचान कैसे की जाए तथा उनके उपचार की महत्वपूर्ण विधियाँ कौन सी हैं, इसकी जानकारी भी प्रदान की गयी है।
7-8. ये अपेक्षाकृत छोटे अध्याय हैं, जिनमें साधारण बीमारियों के बारे में बताया गया है। चरक संहिता आयुर्वेद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति है। इस पुस्तक में चीनी, यमन, पह्लव, शक, वाह्लिक आदि विदेशी जातियों का विवरण मिलता है तथा उनके खान-पान का भी जिक्र किया गया है। इसका अनुवाद कई विदेशी भाषाओं में हुआ है। प्रसिद्ध अरब विद्वान अल-बरूनी ने इसके बारे में लिखा है- हिन्दुओं की एक पुस्तक है, जो चरक के नाम से मशहूर है।
यह औषधि विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक मानी जाती है। चरक ने मनुष्यों की शारीरिक रचना का गहन अध्ययन किया था। उन्हें आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) के मूल सिद्धाँतों का जानकार माना जाता है। उनका स्पष्ट मानना था कि बच्चों में आनुवांशिक दोष जैसे अंधापन, लंगड़ापन, शारीरिक विकृति आदि उनके माता-पिता के किसी अभाव के कारण नहीं, बल्कि उनके शुक्राणु और अण्डाणु के कारण होते हैं।
चरक ने मनुष्य के शरीर में दाँतों सहित कुल हड्डियों की संख्या 360 बताई है। उन्होंने हृदय को शरीर का नियंत्रण केन्द्र माना है। उन्होंने यह भी बताया कि हृदय शरीर से 13 मुख्य धमनियों द्वारा जुड़ा रहता है। उन्हें यह भी ज्ञात था कि शरीर में इसके अतिरिक्त भी सैकड़ों छोटी-बड़ी धमनियाँ होती हैं, जो ऊतकों तक भोजन का रस पहुँचाती हैं तथा मल व व्यर्थ पदार्थों को शरीर के बाहर निकालने का कार्य करती हैं। चरक ने चिकित्सा और स्वास्थ्य के सम्बंध में कहा है- ‘जो चिकित्सक अपने ज्ञान और समझ का दीप लेकर रोगी के शरीर को समझता नहीं, वह रोग कैसे ठीक कर सकता है।
चिकित्सक को सबसे पहले उन सब कारणों का अध्ययन करना चाहिए, जो रोगी को प्रभावित करते हैं। तत्पश्चात उसका उपचार किया जाना चाहिए।’ हालाँकि यह कथन आज के समय में एक सामान्य सी बात है, किन्तु 20 शताब्दी पहले यह एक क्रान्तिकारी विचार था, जिसने दुनिया भर में रोग और स्वास्थ्य के बीच के सम्बंध को समझने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः