Aaj Ki Braj Ras Dhara

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Aaj Ki Braj Ras Dhara
Aaj Ki Braj Ras Dhara

आज की ब्रज रस धारा

भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने अक्रूरजी का भलीभांति सम्मान किया। फिर भगवान ने मथुरा में स्थित अपने सुह्रदय-कुटुम्बी जनो की कुशलता पूँछी। नंदबाबा ने कहा हम सब काल प्रातःकाल ही मथुरा की यात्रा करेगे, और वहाँ चलकर राजा कंस को गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखने के लिए देश की सारी प्रजा इकट्टी हो रही है।हम लोग भी उसे देखेगे। नंदबाबा ने गाँव के कोतवाल के द्वारा यह घोषणा सारे व्रज में करवा दी। यशोदा मैया को जब ये पता चला तो विकल हो गयी सारी रात उनकी रोते-रोते निकल गयी।मेरे कान्हा चले जायेगे ये विचार उन्हें व्यथित करे जा रहा था।

जब गोपियों ने सुना, कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौर सुन्दर बलरामजी को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूरजी व्रज में आये है तब उनके ह्रदय में बड़ी व्यथा हुई, गोपियों ह्रदय में ऐसी जलन हुई -कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया। भगवान के स्वरुप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों की चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत हो गयी। मानो वे समाधिस्थ – आत्मा में स्थित हो गयी हो और उन्हें अपने शरीर और संसार का कुछ ध्यान ही न रहा। गोपियों के सामने भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम उनकी मंद-मंद मुसकान और ह्रदय को स्पर्श करने वाली विचित्र पदों से युक्त मधुर वाणी नाचने लगी।

वे उसमे तल्लीनहो गयी, गोपियाँ मन-ही-मन उदारताभरी लीलाओ का चिंतन करने लगी और उनके विरह के भय से कातर हो गयी। उनका ह्रदय, उनका जीवन – सब कुछ भगवान के प्रति समर्पित था, उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे वे झुंड-के-झुंड इकट्ठी होकार इस प्रकार कहने लगी – गोपियों ने कहा-धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो परन्तु तुम्हारे ह्रदय में दया का लेश भी नहीं है पहले तो तुम सौहार्द और प्रेम से जगत के प्राणियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ देते हो। उन्हें आपस में एक कर देते हो, मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पाती, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो। विधाता ! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखे से ओझल कर रहे हो।

सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है। हम जानती है इसमें अक्रूर का दोष नहीं है, यह तुम्हारी क्रूरता है वास्तव में तुम्ही अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो। अहो! नंदनंदन श्यामसुन्दर को भी नये-नये लोगो से नेह लगाने की चाट पड़ गयी है। देखो तो सही, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदि को छोडकर इनकी दासी बनी है परन्तु ये ऐसे है कि हमारी ओरदेखते तक नहीं। मथुरा की युवतिया अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खीच लेगी ओर ये उनकी सलज्ज मुस्कान और विलासपूर्ण भाव-भंगी से वही रम जांएगे फिर हम गँवार ग्वालिनो के पास ये लौटकर क्यों आने लगे। देखो सखी !

यह अक्रूर कितना निष्ठुर कितना ह्रदय हीन है इधर तो हुम्गोपियाँ इतनी दुखित हो रही है और यह हमारे परम प्रियतम नंददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बाते कहकर हमें धीरज भी नहीं बंधता सचमुच ऐसे अत्यंत क्रूर पुरुष का अकुर नाम नहीं होना चाहिये था। विरह की संभावना से अत्यंत व्याकुल हो गयी और लाज छोडकर हे गोविन्द! हे दामोदर हे माधव पुकार-पुकारकर सुललित स्वर से रोने लगी।

जब भगवान रथ पर सवार हो गये और छकडे पर चढ़कर गोप और नंदबाबा पीस-पीछे चले।तब अनुराग के रंग में रागी हुई गोपियाँ अपने प्राणधन श्रीकृष्ण केपास गयी और मार्ग में लेट गयी भगवान ने देख की मेरे मथुरा जाने से गोपियों के ह्रदय में बड़ी जलन हो रही है वे रथ से उतरकर गोपियों के पास आये, तो गोपियों ने कहा-प्यारे यदि आप को जाना ही है तो रथ को हमारे ह्रदय के ऊपर से निकलकर जाओ।

हम तुम्हारे विरह का दुःख कैसे सहेगी और तुम्हारी मैया तो रो-रो के मार जायेगी। भगवान ने कहा – गोपियों तुम प्रेम की ध्वजा हो, प्रेम करने वालो के लिए ये जरुरी नहीं कि उनका प्रेमी उनकी आँखों के सामने ही हो।मेरे कर्तव्य के मार्ग में बंधा बनना क्य तुम्हे शोभा देता हैमै कल या परसों तक आ जाऊँगा। गोपियाँ जब तकरथ की ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही, तब तक उनके शरीर चित्रलिखित से वही ज्यो-के-त्यों खड़े रहे।

परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राण वल्लभ श्रीकृष्ण के साथ भेज दिया था फिर वे अपने घर चली आयी।सार-प्रेम यदि भगवान से कारण हो तो गोपियों जैसा हो । गोपियों और सारे वृन्दावन के लोगो का इतना प्रेम भगवान से था कि भगवान कभी भी वृन्दावन छोडकर गए ही नहीं एक रूप से भगवान सदा वृन्दावन में ही रहे। “ जय जय श्री राधे ”

बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा से आपका दिन मंगलमय हो।
श्री कृष्ण शरणम ममः

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